"अमरकांत: जिनकी कहानियाँ बोलती थीं"

1 जुलाई 1925 को उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले के भगमलपुर गाँव में जन्मे अमरकांत हिंदी कथा साहित्य के ऐसे स्तंभ थे, जिन्होंने प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा को नए समाजबोध से जोड़ा। उन्होंने पत्रकारिता से शुरुआत की, और धीरे-धीरे कहानी और उपन्यास के माध्यम से आम जनता की ज़िंदगी को साहित्य में स्थान दिलाया।
उनकी कहानियाँ – डिप्टी कलक्टरी, दोपहर का भोजन, जिंदगी और जोंक, और उपन्यास इन्हीं हथियारों से जैसे लेखन ने उन्हें भारतीय यथार्थवाद का प्रतिनिधि बना दिया।
अमरकांत की कहानियाँ किसी उपदेश की तरह नहीं आतीं। वे जैसे जीवन के छोटे-छोटे दृश्य हों – एक बुज़ुर्ग की बेबसी, एक बालक की भूख, या बेरोजगारी से जूझते नौजवान की हताशा।
“डिप्टी कलक्टरी” में नायक का सपना प्रशासनिक अधिकारी बनने का होता है, लेकिन कहानी में उसका अंत जिस विडंबना में होता है, वह पूरे समाज की नब्ज को टटोलता है। उनकी कहानियों में कोई क्रांति नहीं होती, बल्कि वही 'धीमी आग' जलती रहती है जो भीतर बहुत कुछ बदल देती है।
वे लेखक नहीं थे—वे संवेदना थे। मैंने महसूस किया कि साहित्य केवल सुंदरता नहीं, पीड़ा का दस्तावेज़ भी हो सकता है।अमरकांत हमें सिखाते हैं कि साहित्य केवल आदर्शों का पुलिंदा नहीं है—वह संघर्षों का आईना है। वे दिखाते हैं कि किस तरह भाषा सरल होकर भी गहरा प्रभाव छोड़ सकती है।आज जब सोशल मीडिया की भाषा तेज़ और सतही होती जा रही है, तब अमरकांत की कहानियाँ हमें "धीरे और सधे शब्दों की ताकत" याद दिलाती हैं।
उनका लेखन एक सवाल है – क्या हम समाज के उस हाशिए को देख रहे हैं जिसे वे दिखा गए?
अमरकांत का जन्मदिन (1 जुलाई) केवल एक साहित्यकार को याद करने का अवसर नहीं, बल्कि उस सोच को सम्मान देने का क्षण है जो समाज के सबसे कमजोर वर्ग को भी कहानी का नायक बना देता है।
उनकी लेखनी आज भी सवाल करती है –
"कितना बदला समाज? और क्या हम अब भी उस सच्चाई को देखने की हिम्मत रखते हैं?"
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