लघु कथा: "सावन की पहली बारिश"

गाँव के कोने में स्थित छोटी सी झोपड़ी में मीरा अपनी दादी के साथ रहती थी। सावन का महीना शुरू हो चुका था। आसमान में काले बादल मंडरा रहे थे, पेड़-पौधे हरियाली से लदे हुए थे, और चारों ओर मिट्टी की सोंधी-सोंधी खुशबू फैली हुई थी।
मीरा रोज़ आसमान की ओर टकटकी लगाकर देखती, क्योंकि वह जानती थी — सावन की पहली बारिश में भीगने की अनुमति सिर्फ पहली बूंद पर ही मिलती है।
एक दिन दोपहर बाद अचानक तेज़ हवाएँ चलीं और फिर मोटी-मोटी बूँदें गिरने लगीं। मीरा ने दादी की ओर देखा। दादी मुस्कराईं और सिर हिला दिया।
मीरा बिना देर किए बाहर दौड़ी और बारिश में नाचने लगी। वह हँस रही थी, चिल्ला रही थी, जैसे हर बूंद उसके दिल में उतर रही हो। वह नन्ही-सी बच्ची उस सावन की बारिश में अपने सारे दुःख भूल चुकी थी — अपने माँ-बाप की याद, गरीबी की पीड़ा, और अकेलेपन की टीस।
बारिश रुकने के बाद वह गीली मिट्टी में बैठ गई, और दादी आकर उसके पास बैठ गईं। दादी ने उसका भीगा हुआ चेहरा देखा और कहा,
"सावन की बारिश हमेशा कुछ न कुछ धो देती है — कभी तन, कभी मन।"
मीरा मुस्कराई। अब उसका मन भी साफ़ और हल्का हो गया था, जैसे सावन उसके भीतर भी उतर आया हो।
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