ठहरी हुई ज़िंदगी— एक कविता

ज़िंदगी हमेशा बहती नदी की तरह नहीं होती। कई बार वक़्त रुक जाता है, हालात ठहर जाते हैं, और इंसान एक ऐसी उलझन में फंस जाता है जहाँ हर चीज़ थमी हुई लगती है। यह ठहराव कभी मजबूरी बनता है, कभी सोचने का वक़्त देता है, तो कभी नई राहों की तलाश करवाता है।

"ठहरी हुई ज़िंदगी" सिर्फ एक उदासी की तस्वीर नहीं, बल्कि उस खामोश दौर की कहानी है जहाँ भीतर कुछ पक रहा होता है — एक नई शुरुआत की उम्मीद।

यह कविता उस ठहराव को शब्द देती है, जहाँ सब थमा हुआ है, लेकिन अंदर कहीं गहरे जीवन की नयी चाल का इंतज़ार है। पेश है कविता- "ठहरी हुई ज़िंदगी"

ठहरी हुई सी है ज़िंदगी,

ना रफ़्तार है, ना रवानी,
वक़्त की सुइयाँ भी थक कर,
बैठ गई हैं कहीं कहानी।

हवाओं में भी है ख़ामोशी,
फिज़ाओं में सूनापन,
हर पल जैसे रुक कर पूछे,
अब आगे क्या करना है मन?

सपनों की बौछारें भी अब,
चुपचाप किसी कोने में हैं,
धड़कनों की ताल भी जैसे,
बिन सुर के ही रोने में है।

मगर ये ठहराव भी इक दिन,
लाएगा कोई नई सदा,
चुप्पियों की इस गहराई में,
छुपी है कोई नई दुआ।

ठहरी हुई ये ज़िंदगी भी,
चल पड़ेगी इक नई डगर,
साँसों की तन्हा लकीरों पर,
फिर उगेगा उम्मीदों का शहर।

 

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