लघु कथा : भीड़

दोपहर का समय था। बाज़ार अपने चरम पर था। दुकानें सज रही थीं, लोग सामान खरीदने में व्यस्त थे, और सड़क पर गाड़ियों की चहल-पहल थी। इसी भीड़ में एक बुज़ुर्ग व्यक्ति अचानक लड़खड़ाकर गिर पड़ा। उसके हाथ से सामान बिखर गया और वह दर्द से कराह उठा।
लोगों की नज़रें उस पर पड़ीं, पर कदम नहीं रुके। कोई अपने मोबाइल में व्यस्त था, कोई सोशल मीडिया पर लाइव कर रहा था — "देखो, देखो, एक आदमी गिर पड़ा!" कोई कह रहा था, "अरे! कोई तो उठाओ इन्हें!" लेकिन 'कोई' कौन होगा, ये कहने वाला कोई नहीं था।
भीड़ जमा होती गई, लेकिन मदद करने वाला न मिला।
तभी भीड़ में से एक छोटी बच्ची अपनी माँ का हाथ पकड़कर बोली,
"माँ, क्या हम इंसान नहीं हैं?"
उस मासूम आवाज़ में इतनी सच्चाई थी कि सबका दिल चीर गई। माँ की आंखें भर आईं। उसने तुरंत बच्ची के साथ आगे बढ़कर बुज़ुर्ग को सहारा दिया। धीरे-धीरे कुछ और लोग भी आगे आए। किसी ने पानी दिया, किसी ने उनकी छड़ी उठाई।
वो बुज़ुर्ग मुस्कुरा कर बोले, "बेटा, इंसानियत अभी जिंदा है, पर भीड़ में कहीं खो गई थी।"
आज पहली बार भीड़ चुप थी... क्योंकि सवाल भीड़ से नहीं, इंसानियत से था।
संदेश:
"भीड़ में शामिल होना आसान है, पर उस भीड़ में इंसान बनकर खड़े रहना हिम्मत और संवेदनशीलता का काम है।"
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