विभाजन की रात- भारत-पाकिस्तान विभाजन की काली रात को समर्पित कविता

विभाजन की रात- यह कविता 1947 के भारत-पाकिस्तान विभाजन की उस काली रात को समर्पित है,जब आज़ादी की घंटियाँ बजीं, लेकिन उनके साथ ही लाखों घर उजड़ गए।यह शब्द उस दर्द, विस्थापन और बिछड़न की स्मृति हैं,
जो सरहद की लकीर बनने के साथ ही हमारे इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गई। यहाँ 1947 के विभाजन की रात पर एक भावपूर्ण कविता है — उस पीड़ा, बिछड़न और टूटते सपनों को शब्द देने की कोशिश:

आधी रात का वह सन्नाटा,
जहाँ चाँद भी जैसे सुबक रहा था,
सरहद पर खिंची एक काली लकीर,
सदियों का रिश्ता चीर रही थी।

गलियों में दीये तो जले थे,
पर आँखों में उजाला नहीं था,
हर मोड़ पर कोई अपना,
अपनों से जुदा हो रहा था।

घर की चौखटें खाली पड़ीं,
दीवारें नाम पुकार रही थीं,
बाजार में ढोलक की थाप नहीं,
बस रूह कंपा देने वाली चीत्कार थी।

कहीं कोई माँ अपने बेटे को ढूँढ रही थी,
कहीं बेटा अपने पिता की याद में पत्थर हो गया था,
नदियाँ लाल हो गई थीं आँसुओं और खून से,
और हवा बोझिल हो गई थी बिछड़नों के शोक से।

आज़ादी आई थी — पर साथ में,
टूटे दिलों का एक अनंत कारवाँ,
जो आज भी उस लकीर के पार
अपने गाँव की मिट्टी को याद करता है।

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