"हिंदी ग़ज़ल का नया चेहरा: दुष्यंत कुमार"

1 सितंबर 1933 को दुष्यंत कुमार का जन्म हुआ था। उन्हें हिंदी साहित्य में आधुनिक ग़ज़ल के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है। उनकी कृति "साए में धूप" हिंदी ग़ज़ल की दिशा और धारा को नया आयाम देने वाली मानी जाती है। दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों ने आमजन की पीड़ा, व्यवस्था के प्रति आक्रोश और परिवर्तन की आकांक्षा को स्वर दिया। उनकी लेखनी में सहजता, तीखापन और संवेदनशीलता का अद्भुत मिश्रण दिखाई देता है।

उनकी पंक्तियाँ आज भी समाज और राजनीति की विडंबनाओं पर करारा प्रहार करती हैं और लोगों को सोचने पर मजबूर करती हैं।

  • दुष्यंत कुमार हिंदी के उन कवियों में हैं जिन्होंने ग़ज़ल को नए ढंग से जनता तक पहुँचाया।
  • उन्होंने उर्दू ग़ज़ल की परंपरा को हिंदी में अपनाया और उसे आम आदमी की आवाज़ बनाया।
  • उनकी ग़ज़लों में राजनीतिक भ्रष्टाचार, सामाजिक अन्याय और आमजन की पीड़ा का गहरा चित्रण मिलता है।

यहाँ दुष्यंत कुमार की कुछ चुनिंदा और चर्चित ग़ज़ल/शेर प्रस्तुत हैं, जो आज भी लोगों के दिलों में गूंजते हैं:

1."कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए,
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।"

यह शेर व्यवस्था की विडंबना और वायदों की हकीकत पर करारा व्यंग्य है।

2."हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।"

यहाँ कवि परिवर्तन और क्रांति की आकांक्षा व्यक्त करते हैं।

3."सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।"

यह उनकी रचनात्मक चेतना का प्रमाण है—सिर्फ़ आलोचना नहीं, बल्कि बदलाव की प्रेरणा।

4."कौन कहता है कि आसमान में सुराख़ नहीं हो सकता,
     एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों।"

 यह शेर आज भी संघर्ष और हिम्मत का प्रतीक है।

दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें आम आदमी की जुबान बनीं। उनकी रचनाएँ सिर्फ साहित्यिक आनंद नहीं देतीं, बल्कि समाज को सोचने और बदलने की ताक़त भी देती हैं।

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