सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की कविता- रानी और कानी

 

माँ उसको कहती है रानी

आदर से, जैसा है नाम;

लेकिन उसका उल्टा रूप,
चेचक के दाग़, काली, नक-चिपटी,

गंजा-सर, एक आँख कानी।
रानी अब हो गई सयानी,

बीनती है, काँड़ती है, कूटती है, पीसती है,
डलियों के सीले अपने रूखे हाथों मीसती है,

घर बुहारती है, करकट फेंकती है,
और घड़ों भरती है पानी;

फिर भी माँ का दिल बैठा रहा,
एक चोर घर में पैठा रहा,

सोचती रहती है दिन-रात,
कानी की शादी की बात,

मन मसोसकर वह रहती है
जब पड़ोस की कोई कहती है—

“औरत की जात रानी,
ब्याह भला कैसे हो

कानी जो है वह!”
सुनकर कानी का दिल हिल गया,

काँपें कुल अंग,
दाईं आँख से

आँसू भी बह चले माँ के दुख से,
लेकिन वह बाईं आँख कानी

ज्यों-की-त्यों रह गई रखती निगरानी।

 

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