रामाज्ञा शशिधर की कविता: छठ का पूआ

माँ ने नेमटेम से छाना होगा

छठ का पूआ

मैं कितनी दूर से महसूस करता हूँ सुगंध
आज का चाँद छठ का पूआ लगता है

झाँसी माटी के पीले सरसों तेल में
सीझा हुआ गोल-गोल

माँ को याद आता होऊँगा मैं
मुझे पूआ बहुत याद आता है

आज का चाँद गमक रहा है पूए-सा
झाँझ की चोट से कट गया है चाँद

ज़्यादा आँच लगने से जल गया है चाँद
चाँद का बदन जगह-जगह स्याह है

मैं बिहार का पुरबिया
कमाने आया हूँ पच्छिम

पसीने में आस्था है पसीने से प्यार है
पसीना सूरज से जनमा है

मैं सूरज का बेटा हूँ
सूरज को पूजता हूँ

कोई नहीं पूजता है पच्छिम में सूरज
कोई नहीं मनाता पच्छिम में छठ

रात के लिफ़ाफ़े में
पूरब की डाक से आ रहा है चाँद

शायद माँ ने भेजा है चावल का पूआ
जल्दी ही पहुँचेगी सुबह की ट्रेन

परसों का चाँद कुछ ज़्यादा ही कटा था
परसों मूस ने ज़्यादा कुतर खाया होगा

कल का चाँद थोड़ा कम नुचा था
मूस को कल हाथ कम लगा होगा

आज का चाँद गोल सुडौल है
जानती है माँ

मैं अगहन में लौटूँगा
कोठी में बंदकर आँद लगा लीपा है

इन दिनों स्वाद कोई टिक नहीं पाता है
जीभ की छिपली पर तैरता है चाँद

पूए के स्वाद से भरा हुआ है चाँद

-रामाज्ञा शशिधर

Leave a Reply



comments

Loading.....
  • No Previous Comments found.