शायरी — "रूह को छू जाने वाले अल्फ़ाज़"
शायरी — सिर्फ़ लफ़्ज़ों का खेल नहीं,ये तो दिल की आवाज़ है,जिसे हर कोई सुन नहीं पाता,लेकिन महसूस हर कोई करता है।कभी दर्द को बयान करती है,कभी दर्द को बयान करती है,कभी मोहब्बत को सजाती है,कभी ख़ामोशी को लफ़्ज़ देती है,तो कभी लफ़्ज़ों को ख़ामोश कर देती है।
शायरी वो आईना है जिसमें-हर इंसान अपना एक हिस्सा देख लेता है।कभी बीते लम्हों का, कभी खोए ख़्वाबों का।हर शायर के कलम से निकलते हैं वो जज़्बात जो ज़ुबान से नहीं कहे जा सकते,
बस महसूस किए जाते हैं।
पेश है कुछ बड़े शेर जो आपको ज़ुबानी याद होंगे-
आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक
- ग़ालिब
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
- फ़राज़
और भी दुख हैं...
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता
- निदा फ़ाज़ली
ख़ुद अपनी मस्ती है...
ख़ुद अपनी मस्ती है जिस ने मचाई है हलचल
नशा शराब में होता तो नाचती बोतल
- आरिफ़ जलाली
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
- मजरूह सुल्तानपुरी
इश्क़ ने ग़ालिब...
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
- मिर्ज़ा ग़ालिब
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
- मिर्ज़ा ग़ालिब
ये इश्क़ नहीं आसाँ...
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
- जिगर मुरादाबादी
उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते
- बशीर बद्र


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