कुँवर नारायण की कविता- जब दुनिया में पहले प्यार का जन्म हुआ
कुँवर नारायण की यह कविता प्रेम की आदिम मूल-चेतना को छूती है। वे समय की अथाह धारा में उतरकर यह खोजते हैं कि प्रेम का जन्म मनुष्य की सभ्योंताओं, विचारों और दार्शनिक अवधारणाओं से भी पहले हुआ था—जब शरीर ही समूची दुनिया था और भावनाओं ने अभी नाम नहीं पाए थे।
कविता में प्रेम को एक ऐसी शाश्वत शक्ति की तरह चित्रित किया गया है, जो हर युग, हर जन्म, और हर अँधेरे को पार कर नई भोर की तरह फिर जागती है। यह प्रेम सिर्फ शारीरिक नहीं, बल्कि आत्मा के दीर्घ, अविनाशी प्रकाश को पहचानने की एक यात्रा है।
पेश है कविता - जब दुनिया में पहले प्यार का जन्म हुआ
तब तक इजिप्ट के पिरामिड नहीं बने थे
जब दुनिया में
पहले प्यार का जन्म हुआ
तब तक आत्मा की खोज भी नहीं हुई थी,
शरीर ही सब कुछ था
काफ़ी बाद विचारों का जन्म हुआ
मनुष्य के मष्तिष्क से
अनुभवों से उत्पन्न हुई स्मृतियाँ
और जन्म-जन्मांतर तक
खिंचती चली गईं
माना गया कि आत्मा का वैभव
वह जीवन है जो कभी नहीं मरता
प्यार ने
शरीर में छिपी इसी आत्मा के
उजास को जीना चाहा
एक आदिम देह में
लौटती रहती है वह अमर इच्छा
रोज़ अँधेरा होते ही
डूब जाती है वह
अँधेरे के प्रलय में
और हर सुबह निकलती है
एक ताज़ी वैदिक भोर की तरह
पार करती है
सदियों के अन्तराल और आपात दूरियाँ
अपने उस अर्धांग तक पहुँचने के लिए
जिसके बार बार लौटने की कथाएँ
एक देह से लिपटी हैं


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