अकबर इलाहाबादी: चुनिंदा शेर – इश्क़, व्यंग्य और मोहब्बत का अद्वितीय अंदाज़

अकबर इलाहाबादी (1846–1921) उर्दू साहित्य के उन विलक्षण शायरों में से थे, जिनका अंदाज़ हर शैली में अलग और पहचानने योग्य था। वे हास्य-व्यंग और मोहब्बत दोनों ही क्षेत्रों में अद्वितीय थे। पेशे से इलाहाबाद में सेशन जज होने के बावजूद उनका दिल शायरी में गहराई से बसा था।

उनकी शायरी की खासियत यह थी कि वे रोज़मर्रा की जिंदगी, समाज की कमजोरियों और इंसानी भावनाओं को बड़ी सहजता और रोचक व्यंग्यात्मक शैली में पेश करते थे। उनकी ग़ज़लों और शेरों में न सिर्फ़ इश्क़ और हसरत की मिठास मिलती है, बल्कि हास्य और व्यंग्य का तड़का भी देखने को मिलता है।

नीचे प्रस्तुत हैं अकबर इलाहाबादी के चुनिंदा शेर, जो उनके शायरी के विविध रंग और शैली की झलक दिखाते हैं। यह संग्रह उनकी संवेदनशीलता, व्यंग्य-बोध और गहरी सोच का प्रमाण है।
 

अब तो है इश्क़-ए-बुताँ में ज़िंदगानी का मज़ा

जब ख़ुदा का सामना होगा तो देखा जाएगा

लोग कहते हैं कि बदनामी से बचना चाहिए 
कह दो बे उसके जवानी का मज़ा मिलता नहीं 
उन्हीं की बे-वफ़ाई का

उन्हीं की बे-वफ़ाई का ये है आठों-पहर सदमा 
वही होते जो क़ाबू में तो फिर काहे को ग़म होता 

इलाही कैसी कैसी सूरतें तू ने बनाई हैं
कि हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है  

आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते 
अरमान मिरे दिल के निकलने नहीं देते 

होनी न चाहिए थी मोहब्बत मगर हुई 
इश्क़-ए-बुताँ का दीन पे जो कुछ असर पड़े 
अब तो निबाहना है जब इक काम कर पड़े 

इस गुलिस्ताँ में बहुत कलियाँ मुझे तड़पा गईं
क्यूँ लगी थीं शाख़ में क्यूँ बे-खिले मुरझा गईं

होनी न चाहिए थी मोहब्बत मगर हुई 
पड़ना न चाहिए था ग़ज़ब में मगर पड़े 

इश्क़ नाज़ुक-मिज़ाज है
इश्क़ के इज़हार में हर-चंद रुस्वाई तो है
पर करूँ क्या अब तबीअत आप पर आई तो है

इश्क़ नाज़ुक-मिज़ाज है बेहद
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता

साँस की तरकीब पर मिट्टी को प्यार आ ही गया 
ख़ुद हुई क़ैद उस को सीने से लगाने के लिए 

हल्क़े नहीं हैं ज़ुल्फ़ के...
हल्क़े नहीं हैं ज़ुल्फ़ के हल्क़े हैं जाल के 
हाँ ऐ निगाह-ए-शौक़ ज़रा देख-भाल के 

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम 
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता 

मरना क़ुबूल है मगर उल्फ़त नहीं क़ुबूल 
दिल तो न दूँगा आप को मैं जान लीजिए 

दुनिया का तलबगार नहीं हूँ 
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ 
बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ

इश्क़ के इज़हार में हर-चंद रुस्वाई तो है 
पर करूँ क्या अब तबीअत आप पर आई तो है 

जब यास हुई तो आहों ने सीने से निकलना छोड़ दिया 
अब ख़ुश्क-मिज़ाज आँखें भी हुईं दिल ने भी मचलना छोड़ दिया 

हया से सर झुका लेना
हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना 
हसीनों को भी कितना सहल है बिजली गिरा देना 

हसीनों के गले से लगती है ज़ंजीर सोने की 
नज़र आती है क्या चमकी हुई तक़दीर सोने की 

किस नाज़ से कहते हैं वो झुँझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते

 

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