बाल-साहित्यकार द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की कविता- जलाते चलो
भारत के प्रख्यात बाल-साहित्यकार श्री द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी ऐसे लेखक थे जिनके गीत और कविताएँ लंबे समय तक बच्चों की जुबान पर बसे रहे। सरल भाषा, मधुर भाव और नैतिक संदेश उनकी रचनाओं की विशेषता रहे। उनका जन्म 1 दिसम्बर 1916 को उत्तर प्रदेश के आगरा जनपद के रौहता गाँव में हुआ था। वे बाल-साहित्य को नई दिशा देने वाले सृजनशील और समर्पित साहित्यकारों में गिने जाते हैं।
आईये पढ़ते है उनके द्वारा लिखी हुई कविता - जलाते चलो
जलाते चलो ये दीए स्नेह भर-भर
कभी तो धरा का अँधेरा मिटेगा!
भले शक्ति विज्ञान में है निहित वह
कि जिससे अमावस बने पूर्णिमा-सी,
मगर विश्व पर आज क्यों दिवस ही में
घिरी आ रही है अमावस निशा-सी।
बिना स्नेह विद्युत-दीए जल रहे जो
बुझाओ इन्हें, यों न पथ मिल सकेगा।
जला दीप पहला तुम्हीं ने तिमिर की
चुनौती प्रथम बार स्वीकार की थी।
तिमिर की सरित पार करने, तुम्हीं ने
बना दीप की नाव तैयार की थी।
बहाते चलो नाव तुम वह निरंतर
कभी तो तिमिर का किनारा मिलेगा।
युगों से तुम्हीं ने तिमिर की शिला पर
दीए अनगिनत है निरंतर जलाए
समय साक्षी है कि जलते हुए दीप
अनगिन तुम्हारे, पवन ने बुझाए
मगर बुझ स्वयं ज्योति जो दे गए वे
उसी से तिमिर को उजाला मिलेगा।
दीए और तूफ़ान की यह कहानी
चली आ रही और चलती रहेगी
जली जो प्रथम बार लौ उस दीए की
जली स्वर्ण-सी है, और जलती रहेगी।
रहेगा धरा पर दिया एक भी यदि
कभी तो निशा को सवेरा मिलेगा।
जलाते चलो ये दीए स्नेह भर-भर
कभी तो धरा का अँधेरा मिटेगा!
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