दिसंबर का महीना मुझे आख़िरी नहीं लगता-निर्मला गर्ग
निर्मला गर्ग का जन्म 31 मई 1955 को दरभंगा, बिहार में हुआ। अपनी प्रारंभिक शिक्षा दरभंगा में पूरी करने के बाद उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य में उच्च शिक्षा प्राप्त की तथा रूसी भाषा में डिप्लोमा भी किया। वे पहले प्रगतिशील लेखक संघ और बाद में जनवादी लेखक संघ से वर्षों तक सक्रिय रूप से जुड़ी रहीं।
हिंदी कविता जगत में उनका प्रवेश 1992 में प्रकाशित प्रथम काव्य-संग्रह ‘यह हरा गलीचा’ से हुआ। इसके बाद ‘कबाड़ी का तराज़ू’ (2000), ‘सफ़र के लिए रसद’ (2007) और नवीनतम संग्रह ‘दिसंबर का महीना मुझे आख़िरी नहीं लगता’ (2014) प्रकाशित हुए।
उनकी कविताओं में अपने समय के समाज की विसंगतियों से निरंतर संवाद का गहरा आग्रह दिखाई देता है। आईये पढ़ते है उनके द्वारा लिखी हुई कविता - दिसंबर का महीना मुझे आख़िरी नहीं लगता
दिसंबर सर्द है ज़्यादा इस बार
पहाड़ों पर बर्फ़ गिर रही है लगातार...
दिसंबर का महीना मुझे आख़िरी नहीं लगता
आख़िरी नहीं लगतीं उसकी शामें
नई भोर की गुज़र चुकी रात नहीं है यह
भूमिका है उसकी
इस सर्द महीने के रूखे चेहरे पर
यात्रा की धूल है
फटी एड़ियों में इस यात्रा की निरंतरता
दिसंबर के पास सारे महीने छोड़ जाते हैं
अपनी कोई न कोई चीज़
जुलाई बरिश
नवंबर पतझड़
मार्च सुगम संगीत
तेज़ ठंड ने फ़िलहाल धकेल दिया है सभी चीज़ों को
पृष्ठभूमि में
“पारा शून्य को छूते-छूते रह गया है”
समाचारों में बताया गया
ऐसी ही एक सुबह मैं देखती हूँ
एक तस्वीर
रात है... कुहरा छाया है
अनमना हो आया है कुहरे में बिजली का खंबा
चादर ओढ़े फ़ुटपाथ पर कोई सो रहा है
नीचे लिखा है :
जिन्हें नाज़ है हिंद पर...!

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