निदा फ़ाज़ली की उस अधूरी कहानी ने बना दिया शायर...!

उर्दू शायरी की दुनिया में निदा फ़ाज़ली अपना एक अलग मुकाम रखते हैं। उनकी शायरी, उनकी ग़ज़लों में सुकून और अनंत गहराई नज़र आती है। कहते हैं कि जब निदा फ़ाज़ली साहब पढ़ा करते थे, तो उनके साथ एक लड़की भी बैठ कर पढ़ा करती थी। उस लड़की से निदा फ़ाज़ली साहब एक अनजाना मगर कुछ गहरा रिश्ता महसूस करने लगे थे। एक रोज़ कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर एक नोट लिखा हुआ था, "Miss Tondon met with an accident and has expired." निदा फ़ाज़ली के जानने वाले कहते हैं कि इस नोटिस को पढ़ कर उन्हें बहुत दुःख हुआ था और उन्हें जो कुछ भी लिखने का तजुर्बा था और जो कुछ उन्होंने लिखा था उसमें भी वो अपने दुःख को व्यक्त न कर सके थे। एक बार वो किसी मंदिर से गुज़र रहे थे, उस समय सूरदास का एक भजन गाया जा रहा था, जिसमें श्याम के गोकुल छोड़ कर चले जाने पर गोपियाँ बहुत व्याकुल थीं और वो फुलवारियों से पूछ रही होती हैं, "न मधुबन तुम क्यौं रहत हरे? बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे?" इस भजन को सुन कर निदा फ़ाज़ली के दुःख को अभिव्यक्ति का साधन मिला। वहीं इसके बाद निदा फ़ाज़ली ने तमाम कवियों की रचनाओं का अध्ययन किया और धीरे-धीरे उनकी अभिव्यक्तियों को धार मिलती गई। निदा फ़ाज़ली साहब ने सहज, सरल और आम भाषा में हमेशा दिल की बात कही और उनकी बात हर दिल तक पहुँची। आज प्रस्तुत है निदा फ़ाज़ली साहब की लेखनी से निकली कुछ चुनिंदा ग़ज़लें...।
नयी-नयी आंखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है,
कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन अब घर अच्छा लगता है।
मिलने-जुलनेवालों में तो सारे अपने जैसे हैं,
जिससे अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है।
मेरे आंगन में आये या तेरे सर पर चोट लगे,
सन्नाटों में बोलनेवाला पत्थर अच्छा लगता है।
चाहत हो या पूजा सबके अपने-अपने सांचे हैं,
जो मूरत में ढल जाये वो पैकर अच्छा लगता है।
हमने भी सोकर देखा है नये-पुराने शहरों में,
जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है।।
हर कविता मुकम्मल होती है
लेकिन वह क़लम से काग़ज़ पर जब आती है
थोड़ी सी कमी रह जाती है।
हर प्रीत मुकम्मल होती है
लेकिन वह गगन से धरती पर जब आती है
थोड़ी सी कमी रह जाती है।
हर जीत मुकम्मल होती है
सरहद से वह लेकिन आँगन में जब आती है
थोड़ी सी कमी रह जाती है।
फिर कविता नई
फिर प्रीत नई
फिर जीत नई बहलाती है
हर बार मगर लगता है यूँ ही
थोड़ी सी कमी रह जाती है।।
कहीं छत थी, दीवारो-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे
मगर जो दिया वो दिया देर से।
हुआ न कोई काम मामूल से
गुजारे शबों-रोज़ कुछ इस तरह
कभी चाँद चमका ग़लत वक़्त पर
कभी घर में सूरज उगा देर से।
कभी रुक गये राह में बेसबब
कभी वक़्त से पहले घिर आयी शब
हुए बन्द दरवाज़े खुल-खुल के सब
जहाँ भी गया मैं गया देर से।
ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है
यही है जुदाई, यही मेल है
मैं मुड़-मुड़ के देखा किया दूर तक
बनी वो ख़मोशी, सदा देर से।
सजा दिन भी रौशन हुई रात भी
भरे जाम लगराई बरसात भी
रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी
जो होना था जल्दी हुआ देर से।
भटकती रही यूँ ही हर बन्दगी
मिली न कहीं से कोई रौशनी
छुपा था कहीं भीड़ में आदमी
हुआ मुझमें रौशन ख़ुदा देर से।।
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