कैसे भरभरा कर गिर रहें हैं सभ्यताओं के ध्वज स्तंभ , गीता शर्मा

कैसे भरभरा कर गिर रहें हैं सभ्यताओं के ध्वज स्तंभ , गीता शर्मा
तुम
गर गुजरो
उस राह से कभी
तो देखना
जमीं कितनी धंस गई है
झुलसी घास कैसे कराह रही है
पेड़ों से हरे पत्ते तक झर गए हैं
फूल सारे मुरझा गए हैं
पक्षियों का कलरव मौन हैं
पर्वत का कलेजा चटक गया है
घाटी में सिर्फ चीखें लौटती है
परत दर परत पूरी पिघल चुकी है बर्फ
सूखी रेत हो चुकी है नदी
गुमसुम तितली ढूंढ रही है बैठने को एक डाल
हवाओं में दूर तलक दुर्गंध है
तालाब में सड़ांध का साम्राज्य है
दिन का चेहरा हो गया है स्याह क्यों
कैसे भरभरा कर गिर रहें हैं सभ्यताओं के ध्वज स्तंभ
भीमबेटका की गुफाओं के गाल पर ठहरे हैं
स्तब्ध आंसू
प्रगति के मील के पत्थर पर अंकित है सिर्फ शून्य
ओह ओह ओह से प्रतिध्वनित होता ब्रह्माण्ड
पूछोगे तो गवाही देने
उतर आएंगे शर्मिंदा सूरज चांद
क्यों झुका दिये है आसमां ने अपने कंधे
गड़ जाओगे शरम से तुम भी
वहीं
जहां किसी स्त्री को निर्वसना कर
हंस रही है
एक निर्लज्ज भीड़
जहां मरणासन्न चिड़िया पोंछ रही है
अपने नोंचे गए पंखों से
बाजों के स्खलित वीर्य
गर थोड़ा सा भी इंसान बच गया होगा
तुम्हारे भीतर
गर किसी तरह राजनीति का
हिस्सा बनने से बचे हुए हो अभी तक
तुम ?
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