मैंने गंगा को देखा एक लंबे सफ़र के बाद "केदारनाथ सिंह"

मैंने गंगा को देखा
एक लंबे सफ़र के बाद
जब मेरी आँखें
कुछ भी देखने को तरस रही थीं
जब मेरे पास कोई काम नहीं था
मैंने गंगा को देखा
प्रचंड लू के थपेड़ों के बाद
जब एक शाम
मुझे साहस और ताज़गी की
बेहद ज़रूरत थी
मैंने गंगा को देखा एक रोहू मछली थी
डब-डब आँख में
जहाँ जीने की अपार तरलता थी
मैंने गंगा को देखा जहाँ एक बूढ़ा मल्लाह
रेती पर खड़ा था
घर जाने को तैयार
और मैंने देखा—
बूढ़ा ख़ुश था
वर्ष के उन सबसे उदास दिनों में भी
मैं हैरान रह गया यह देखकर
कि गंगा के जल में कितनी लंबी
और शानदार लगती है
एक बूढ़े आदमी के ख़ुश होने की परछाईं! 

जब बूढ़ा ज़रा हिला
उसने अपना जाल उठाया
कंधे पर रखा
चलने से पहले
एक बार फिर गंगा की ओर देखा
और मुस्कुराया
यह एक थके हुए बूढ़े मल्लाह की
मुस्कान थी
जिसमें कोई पछतावा नहीं था
यदि थी तो एक सच्ची
और गहरी कृतज्ञता
बहते हुए चंचल जल के प्रति
मानो उसकी आँखें कहती हों—
‘अब हो गई शाम
अच्छा भाई पानी
राम! राम!’ 

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