मोज शोख के लिए फटाके फोड़ो, लेकिन उसे धर्म और परंपरा से न जोड़ो।

शीर्षक:- मोज शोख के लिए फटाके फोड़ो, लेकिन उसे धर्म और परंपरा से न जोड़ो।
राजकोट - भारत में दीवाली का त्योहार रोशनी, रंगोली, और खुशियों का प्रतीक है। यह वह समय है जब हम अपने घरों को दीयों से सजाते हैं, मिठाइयाँ बाँटते हैं, और अपनों के साथ उत्सव मनाते हैं। लेकिन पिछले कुछ दशकों में, दीवाली का एक और पहलू चर्चा में रहा है—फटाके। फटाकों का शोर, धुआँ, और पर्यावरण पर उनका प्रभाव अब एक गंभीर बहस का विषय बन चुका है। सवाल यह है कि क्या फटाके वाकई हमारी दीवाली की परंपरा का हिस्सा हैं? और क्या इन्हें धर्म से जोड़ना उचित है?
भारत में फटाकों का इतिहास
भारत में फटाकों का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। इतिहासकारों के अनुसार, फटाकों की शुरुआत चीन में हुई थी, और भारत में ये मध्यकाल में, लगभग 15वीं-16वीं सदी में, मुगल शासकों के समय प्रचलन में आए। उस समय फटाकों का उपयोग युद्ध, समारोहों, और शाही उत्सवों में होता था। दीवाली जैसे धार्मिक पर्वों में फटाकों का व्यापक उपयोग 20वीं सदी में ही शुरू हुआ। यानी, फटाके हमारे हजारों साल पुराने सांस्कृतिक इतिहास का हिस्सा नहीं हैं। फिर भी, आज इन्हें दीवाली की परंपरा का अभिन्न अंग मान लिया गया है।
दीवाली में परंपरा का इतिहास और विज्ञान।
दीवाली का मूल आधार हैप्रकाश और ज्ञान का उत्सव। यह पर्व श्री राम के अयोध्या लौटने की खुशी में मनाया जाता है, जब नगरवासियों ने दीयों से उनका स्वागत किया था। दीये, रंगोली, और मिठाइयाँ दीवाली की आत्मा हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, मिट्टी के दीये जलाने से वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। तेल और बाती का दहन न केवल प्रकाश देता है, बल्कि पर्यावरण को शुद्ध करने में भी मदद करता है। वैसे ही घी में किए गए दिए बहुत मात्रामे ऑक्सीजन उत्पन्न करते हे। साथमे रंगोली बनाने की परंपरा रचनात्मकता और सौंदर्य को बढ़ावा देती है, जो मन और आत्मा को सुकून देती है।और आपकी कला प्रस्तुत करने का मौका देती हे।
दूसरी ओर, फटाकों का वैज्ञानिक प्रभाव चिंताजनक है। फटाकों से निकलने वाला धुआँ वायु प्रदूषण को बढ़ाता है, जिसमें कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, और अन्य हानिकारक कण शामिल होते हैं। यह न केवल मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, बल्कि पशु-पक्षियों और पर्यावरण को भी नुकसान पहुँचाता है। शोर प्रदूषण से बच्चों, बुजुर्गों, और पालतू जानवरों को गंभीर परेशानी होती है। फिरभी दुख तो तब होता हे जब हम अपने धर्म को दूसरे धर्म को जोड़के बोलते हे की दीवाली हे तो फ़टाके फोड़ेंगे वह धर्म को यह कहो वह कहो।इससे यह लगता हे की 400 साल पुराने फटाके हजारों साल पुराने इतिहास पर भारी?हमारा सांस्कृतिक इतिहास हजारों साल पुराना है, जिसमें दीवाली का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व गहराई से जुड़ा है। लेकिन फटाके, जो केवल 400-500 साल पहले भारत आए, क्या वाकई इस प्राचीन परंपरा का हिस्सा हो सकते हैं? फटाकों को दीवाली से जोड़ना एक आधुनिक चलन है, जिसे हमने मनोरंजन के लिए अपनाया। यह शोख और उत्साह का प्रतीक हो सकता है, लेकिन इसे धर्म या परंपरा का हिस्सा मानना गलत है। हमारे शास्त्रों में दीवाली का उल्लेख दीयों, पूजा, और भक्ति के साथ है, न कि शोर और धुएँ के साथ।फटाकों को धर्म से जोड़कर आप धर्म के विरुद्ध जा रहे हैं। हिंदू धर्म में प्रकृति को पूजनीय माना गया है। नदियाँ, पर्वत, वृक्ष—सबको देवता के रूप में देखा जाता है। दीवाली का असली संदेश है अंधेरे पर प्रकाश की जीत, अज्ञान पर ज्ञान की विजय। फटाकों का धुआँ और शोर न तो प्रकाश बढ़ाता है, न ही ज्ञान। यह केवल क्षणिक मोज देता है, जिसका मूल्य पर्यावरण और स्वास्थ्य के नुकसान के रूप में चुकाना पड़ता है।
फटाकों को धर्म से जोड़कर हम अनजाने में अपने ही धर्म के मूल्यों के खिलाफ कार्य कर रहे हैं। धर्म हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाने की सीख देता है, न कि उसे नष्ट करने की। फटाकों के उपयोग को धार्मिक कृत्य मानना न केवल गलत है, बल्कि यह हमारे धर्म की मर्यादा को भी ठेस पहुँचाता है।दीए और रंगोली का धार्मिक महत्वदीवाली में दीये जलाने का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है। दीया आत्मा का प्रकाश है, जो हमें अंधकार से मुक्ति की ओर ले जाता है। रंगोली का महत्व भी गहरा है—यह घर में सकारात्मक ऊर्जा को आमंत्रित करती है और समृद्धि का प्रतीक है। ये परंपरा न केवल पर्यावरण के अनुकूल हैं, बल्कि हमारे मन को शांति और समृद्धि का अनुभव भी कराती हैं। इन्हें अपनाने से हम अपनी संस्कृति को जीवित रखते हैं और प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए रखते हैं। आपका जीवन दीयों की तरह प्रकाशमय हो, और रंगोली की तरह रंगीन! मिठाई की तरह मीठा रहे और परिवार में सुख,शांति समृद्धि बनी रहे। दीवाली की हार्दिक शुभकामनाए।
लेखक: प्रतीक संघवी, राजकोट
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