घेरे था मुझे तुम्हारी सांसों का पवन

रामधारी सिंह दिनकर  हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे.  वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं. राष्ट्रवाद अथवा राष्ट्रीयता को इनके काव्य की मूल-भूमि मानते हुए इन्हे 'युग-चारण' व 'काल के चारण' की संज्ञा दी गई है. तो आइए पढ़ते हैं रामधारी सिंह दिनकर की कविता घेरे था मुझे तुम्हारी सांसों का पवन....

घेरे था मुझे तुम्हारी सांसों का पवन,
जब मैं बालक अबोध अनजान था।

यह पवन तुम्हारी सांस का
सौरभ लाता था।
उसके कंधों पर चढ़ा
मैं जाने कहाँ-कहाँ
आकाश में घूम आता था।

सृष्टि शायद तब भी रहस्य थी।
मगर कोई परी मेरे साथ में थी;
मुझे मालूम तो न था,
मगर ताले की कूंजी मेरे हाथ में थी।

जवान हो कर मैं आदमी न रहा,
खेत की घास हो गया।

तुम्हारा पवन आज भी आता है
और घास के साथ अठखेलियाँ करता है,
उसके कानों में चुपके चुपके
कोई संदेश भरता है।

घास उड़ना चाहती है
और अकुलाती है,
मगर उसकी जड़ें धरती में
बेतरह गड़ी हुईं हैं।
इसलिए हवा के साथ
वह उड़ नहीं पाती है।

शक्ति जो चेतन थी,
अब जड़ हो गयी है।
बचपन में जो कुंजी मेरे पास थी,
उम्र बढ़ते बढ़ते
वह कहीं खो गयी है। 

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