विजय शंकर नायक,केन्द्रीय उपाध्यक्ष,आदिवासी मूलवासी जनाधिकार मंच

रांची - श्रद्धांजलि दिशोम गुरु शिबू सोरेन: की मृत्यु एक युग का अंत है,शिबू सोरेन केवल एक व्यक्ति नहीं,एक विचारधारा थे झारखंड की मिट्टी और झारखंडी समाज आपको हमेशा याद रखेंगे। झारखंड की मिट्टी का वह सपूत, जिसने दलित आदिवासी मूलवासी समाज की आवाज को न केवल बुलंद किया, बल्कि उसे एक नई पहचान दी, दिशोम गुरु शिबू सोरेन अब हमारे बीच नहीं हैं। उनकी असमायिक मृत्यु ने न सिर्फ झारखंड, बल्कि पूरे देश को शोक में डुबो दिया है। शिबू सोरेन का जीवन केवल एक नेता की कहानी नहीं, बल्कि एक ऐसे क्रांतिकारी की गाथा है, जिसने अपने लोगों के लिए सब कुछ न्योछावर कर दिया। यह लेख उनकी अनकही कहानियों, उनके अनछुए पहलुओं, और उनकी अमर विरासत को समर्पित है। एक साधारण जीवन,असाधारण सपने 11 जनवरी 1944 को रामगढ़ के नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन का बचपन गरीबी और अभावों से भरा था। उनके पिता, सोबरन मांझी, एक सामाजिक कार्यकर्ता थे, जिन्होंने आदिवासियों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाई। 1957 में उनके पिता की हत्या ने 13 वर्षीय शिबू के जीवन को बदल दिया। यह त्रासदी उनके लिए एक टर्निंग पॉइंट थी, जिसने उन्हें स्कूल छोड़कर सामाजिक न्याय की लड़ाई में कूदने को मजबूर किया। अनछुआ पहलू: कम लोग जानते हैं कि शिबू सोरेन ने अपनी युवावस्था में कविताएँ लिखी थीं। ये कविताएँ आदिवासी संस्कृति, प्रकृति, और शोषण के खिलाफ विद्रोह की भावना से भरी थीं। उनकी एक कविता की पंक्तियाँ थीं "जंगल हमारा, जमीन हमारी, फिर क्यूँ भटके हम बेगाने?
हक छीन लो, उठो मेरे भाई, बनो अपने भाग्य के विधाता।" ये पंक्तियाँ बाद में धनकटनी आंदोलन का आधार बनीं, जिसमें आदिवासी युवाओं ने महाजनों के खेतों से जबरन धान काटकर अपनी जमीन और सम्मान की रक्षा की। धनकटनी आंदोलन विद्रोह का पहला स्वर 1960 के दशक में शिबू सोरेन ने धनकटनी आंदोलन शुरू किया, जो आदिवासियों के आर्थिक शोषण के खिलाफ एक सशक्त विद्रोह था। तीर-धनुष से लैस युवा, शिबू के नेतृत्व में, सूदखोरों और जमींदारों के खेतों से फसल काटकर लाते थे। यह आंदोलन केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक अस्मिता की रक्षा का प्रतीक था।
अनछुआ पहलू इस आंदोलन के दौरान शिबू सोरेन ने गाँव-गाँव में "सांस्कृतिक जागरण सभाएँ" आयोजित कीं, जहाँ आदिवासी लोकगीत, नृत्य, और कहानियों के माध्यम से युवाओं को अपनी जड़ों से जोड़ा गया। वे मानते थे कि बिना सांस्कृतिक जागरूकता के कोई भी आंदोलन अधूरा है। इन सभाओं में वे खुद ढोल-मांदर बजाते और आदिवासी गीत गाते थे, जिससे युवाओं में जोश और एकता की भावना जागृत होती थी।झारखंड मुक्ति मोर्चा: एक विचारधारा का जन्म 1970 के दशक में शिबू सोरेन ने झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की स्थापना की। उनका सपना था एक ऐसा झारखंड, जहाँ आदिवासी और मूलवासी अपने हक और सम्मान के साथ जी सकें। अलग झारखंड राज्य की मांग को उन्होंने जन-जन तक पहुँचाया। यह लड़ाई आसान नहीं थी। असंख्य कार्यकर्ताओं ने अपने प्राणों की आहुति दी, और शिबू सोरेन स्वयं कई बार जेल गए। 2000 में जब झारखंड राज्य बना, तो यह उनकी दृढ़ता और बलिदान का परिणाम था। अनछुआ पहलू शिबू सोरेन ने झामुमो के शुरुआती दिनों में एक "पंचायत पत्रिका" शुरू की थी, जो स्थानीय भाषाओं में छपती थी। इस पत्रिका में आदिवासियों के अधिकार, शिक्षा, और पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों पर लेख प्रकाशित होते थे। यह पत्रिका गाँवों में मुफ्त बाँटी जाती थी, ताकि साक्षरता और जागरूकता बढ़े। इस पहल को उन्होंने अपने निजी खर्च से चलाया, जो उनकी दूरदृष्टि को दर्शाता है। मानवीय संवेदनशीलता: एक सच्चा जननायक शिबू सोरेन की छवि एक कठोर और दृढ़ नेता की रही, लेकिन उनके करीबी जानते थे कि वे कितने संवेदनशील थे। वे रातों को गाँवों में घूमते, लोगों की समस्याएँ सुनते, और उनके साथ बैठकर चूल्हे पर बनी रोटी खाते। उनकी सादगी ऐसी थी कि केंद्रीय कोयला मंत्री रहते हुए भी वे सादा खाना और साधारण वस्त्र पसंद करते थे। शिबू सोरेन ने गुप्त रूप से कई आदिवासी बच्चों की शिक्षा का खर्च उठाया। उनके एक सहयोगी ने बताया कि वे अक्सर गाँव के स्कूलों में जाकर शिक्षकों से मुलाकात करते और बच्चों को किताबें वितरित करते थे। वे कहते थे, "शिक्षा ही वह हथियार है, जो हमें शोषण से मुक्ति दिलाएगा।" उनकी इस पहल के बारे में वे कभी सार्वजनिक रूप से नहीं बोले, क्योंकि वे मानते थे कि सेवा का कोई प्रचार नहीं होना चाहिए। परिवार और व्यक्तिगत बलिदान शिबू सोरेन की पत्नी, रूपी सोरेन, उनकी सबसे बड़ी ताकत थीं। उन्होंने आंदोलनों में शिबू का साथ दिया, लेकिन हमेशा पर्दे के पीछे रहीं। उनके बच्चों, विशेष रूप से हेमंत सोरेन, को उन्होंने हमेशा सिखाया कि सत्ता से ज्यादा महत्वपूर्ण जनसेवा है। अनछुआ पहलू: शिबू सोरेन ने अपने परिवार को कभी भी राजनीति में प्रमुखता नहीं लेने दी। उनके बड़े बेटे, दुर्गा सोरेन, की मृत्यु (2009) ने उन्हें गहरा आघात पहुँचाया, लेकिन उन्होंने इस दुख को सार्वजनिक रूप से कभी व्यक्त नहीं किया। उनके करीबी बताते हैं कि वे अक्सर रात में अकेले बैठकर अपने बेटे की तस्वीर देखते और चुपके से आँसू बहाते थे। यह उनकी निजी जिंदगी का वह पहलू था, जो जनता से हमेशा छिपा रहा। विवादों का सामना और अटल विश्वास शिबू सोरेन का जीवन विवादों से मुक्त नहीं रहा। 2004 में चिरूडीह कांड और अन्य आरोपों ने उनकी छवि को प्रभावित किया। उन्हें केंद्रीय कोयला मंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा, और कई बार कानूनी लड़ाइयों का सामना करना पड़ा। लेकिन उनके समर्थकों का मानना था कि ये आरोप उनकी लोकप्रियता को कम करने की साजिश थे। इन तमाम चुनौतियों के बावजूद, शिबू सोरेन ने कभी अपने लक्ष्य से समझौता नहीं किया। अनछुआ पहलू: विवादों के दौरान शिबू सोरेन ने एक डायरी लिखी, जिसमें उन्होंने अपने विचार और दुख व्यक्त किए। इस डायरी में उन्होंने लिखा, "सच्चाई का रास्ता कठिन होता है, लेकिन वह हमेशा जीतता है।" यह डायरी उनके परिवार के पास सुरक्षित है और उनके निजी विचारों का एक अनमोल दस्तावेज है। अंतिम दिन और शोक की लहर 2025 में शिबू सोरेन की तबीयत बिगड़ने की खबरों ने उनके समर्थकों को चिंतित कर दिया। फरवरी में सांस की तकलीफ और जून में किडनी की गंभीर समस्या के कारण उन्हें दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में भर्ती किया गया। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, झारखंड के राज्यपाल संतोष गंगवार, और कई नेताओं ने उनका हालचाल लिया। उनकी (मृत्यु) ने पूरे देश में शोक की लहर दौड़ा दी।
अमर विरासत शिबू सोरेन केवल एक व्यक्ति नहीं, एक विचारधारा थे। उनके बेटे हेमंत सोरेन ने कहा, "गुरुजी ने हमें सिखाया कि सच्चाई और संघर्ष ही जीत का रास्ता है।" झारखंड मुक्ति मोर्चा और अलग झारखंड राज्य उनकी सबसे बड़ी देन हैं। उनकी मृत्यु ने लाखों लोगों को उनकी विरासत को आगे बढ़ाने की प्रेरणा दी है। शिबू सोरेन पर्यावरण संरक्षण के भी प्रबल समर्थक थे। उन्होंने अपने गाँव में सैकड़ों पेड़ लगवाए और आदिवासियों को जंगल संरक्षण के लिए प्रेरित किया। वे कहते थे, "जंगल हमारी माँ है, इसे बचाना हमारा धर्म है।" उनकी यह सोच आज के पर्यावरण संकट के दौर में और भी प्रासंगिक है।
शिबू सोरेन का जीवन हमें सिखाता है कि सच्चा नेतृत्व वही है, जो अपने लोगों के लिए जीए। उनकी सादगी, संवेदनशीलता, और संघर्ष की कहानी हर उस व्यक्ति को प्रेरित करती है, जो सामाजिक न्याय और समानता के लिए लड़ना चाहता है। दिशोम गुरु की मृत्यु एक युग का अंत है, लेकिन उनकी शिक्षाएँ और उनका बलिदान हमेशा जीवित रहेंगे। श्रद्धांजलि: दिशोम गुरु, आपकी आत्मा को शांति मिले। झारखंड की मिट्टी और झारखंडी समाज आपको हमेशा याद रखेंगे।
रिपोर्टर - नदीम दानिश
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