राष्ट्रकवि "सोहन लाल द्विवेदी" की चार श्रेष्ठ कविताएँ, जो चुरा लेंगी आपका मन...।

हिंदी भाषा के कवि सोहन लाल द्विवेदी, जिनकी रचनाओं में महात्मा गाँधी का प्रतिबिम्ब नज़र आता है, वो हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनकी कविताओं में राष्ट्रीयता की भावनाओं का समावेश होता है। एक ओर जहाँ सोहन लाल द्विवेदी ने भारत के नौजवानों में ऊर्जा प्रवाहित करने वाली चेतना का नवसंचार किया है, वहीं दूसरी ओर उन्होंने कई बाल कविताएँ भी लिखी हैं। 22 जनवरी, 1906 को उत्तर प्रदेश के फ़तेहपुर में जन्मे सोहन लाल द्विवेदी जी को राष्ट्रकवि की उपाधि से अलंकृत किया गया है। कवि सोहन लाल द्विवेदी ने अपनी कविताओं के माध्यम से देश के युवाओं को देश के लिए बड़े से बड़े बलिदान को करने के लिए प्रेरित करने के लिए पूरी शक्ति लगा दी। आज सोहन लाल द्विवेदी जी के जन्मदिन के मौके पर उनके रचना सागर से कुछ चुनिन्दा कविताओं को हम आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। उन्हीं की कविताओं के माध्यम से उन्हें हमारी श्रद्धांजलि समर्पित है...।

सर्वप्रथम प्रस्तुत है वह कविता जिसे कई लोग यह समझते हैं कि ये रचना हरिवंश राय बच्चन की है, किन्तु वास्तविकता में यह कविता राष्ट्रकवि सोहन लाल द्विवेदी की है। वो कविता है "लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती"...।

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है,
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है,
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है,
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में,
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो,
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम,
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।।

अब प्रस्तुत है एक प्रार्थना, एक निवेदन जो सोहन लाल द्विवेदी की कलम से निकली और कागज़ पर अंकित हो गई....।

वंदना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो।
राग में जब मत्त झूलो
तो कभी माँ को न भूलो,
अर्चना के रत्नकण में एक कण मेरा मिला लो।
जब हृदय का तार बोले,
शृंखला के बंद खोले;
हों जहाँ बलि शीश अगणित, एक सिर मेरा मिला लो।

अब बसंत ऋतु के इस सुहाने मौसम और प्रकृति का वर्णन करते हुए राष्ट्रकवि सोहल लाल द्विवेदी ने कितने मनमोहक स्वरुप में इस बसंत ऋतु का वर्णन किया है, उसकी एक बानगी भी देख लीजिये...।

आया वसंत आया वसंत
छाई जग में शोभा अनंत।

सरसों खेतों में उठी फूल
बौरें आमों में उठीं झूल
बेलों में फूले नये फूल

पल में पतझड़ का हुआ अंत
आया वसंत आया वसंत।

लेकर सुगंध बह रहा पवन
हरियाली छाई है बन बन,
सुंदर लगता है घर आँगन

है आज मधुर सब दिग दिगंत
आया वसंत आया वसंत।

भौरे गाते हैं नया गान,
कोकिला छेड़ती कुहू तान
हैं सब जीवों के सुखी प्राण,

इस सुख का हो अब नही अंत
घर-घर में छाये नित वसंत।

और अब सोहन लाल द्विवेदी के रचना-सागर का आज के लिए एक और मोती आपके सामने प्रस्तुत है, जिसमें उन्होंने प्रणय बंधन के बारे में बयाँ करते हुए शब्दों की कोमलता से किस प्रकार भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हुए एक निवेदन किया है वह भी प्रस्तुत है, जिसका शीर्षक है "नयनों की रेशम डोरी से"...।

नयनों की रेशम डोरी से
अपनी कोमल बरजोरी से।

रहने दो इसको निर्जन में
बांधो मत मधुमय बन्धन में,
एकाकी ही है भला यहाँ,
निठुराई की झकझोरी से।

अन्तरतम तक तुम भेद रहे,
प्राणों के कण कण छेद रहे।
मत अपने मन में कसो मुझे
इस ममता की गँठजोरी से।

निष्ठुर न बनो मेरे चंचल
रहने दो कोरा ही अंचल,
मत अरूण करो हे तरूण किरण।
अपनी करूणा की रोरी से।

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