क्या मुस्लिम महिलाएँ मासिक धर्म के दौरान नमाज़ पढ़ सकती हैं? जानिए पूरी जानकारी"

इस्लाम में नमाज़ (सलाह) पाँच वक़्त की अनिवार्य इबादत है, जिसका उद्देश्य अल्लाह से संबंध मज़बूत करना, मार्गदर्शन लेना और आत्मिक शुद्धता को कायम रखना है। लेकिन महिलाओं से सम्बंधित एक अक्सर पूछा जाने वाला प्रश्न है:क्या मुस्लिम महिलाएँ मासिक धर्म (हैज़) के दौरान नमाज़ पढ़ सकती हैं?आइए इसे विस्तार से समझते हैं।

मासिक धर्म और नमाज़: इस्लामी दृष्टिकोण

इस्लाम में मासिक धर्म को एक प्राकृतिक स्थिति माना गया है। यह कोई पाप, कमजोरी या कमी नहीं है—बल्कि एक जैविक प्रक्रिया है जो महिलाओं की प्रकृति का हिस्सा है।
फिर भी, इस अवस्था में महिलाओं के लिए कुछ विशेष धार्मिक नियम लागू होते हैं।

1. नमाज़ से छूट (रोक नहीं, छूट)

इस्लामी फिक़्ह के अनुसार मासिक धर्म की अवधि में महिलाएँ नमाज़ नहीं पढ़तीं, क्योंकि उन्हें एक विशेष प्रकार की धार्मिक अशुद्धता (हदस-ए-अकबर) की स्थिति में माना जाता है।
यह "मनाही" सज़ा या पाप के अर्थ में नहीं है, बल्कि एक राहत (रुख़्सत) है।
हदीसों में स्पष्ट है कि मासिक धर्म वाली महिला न नमाज़ पढ़ती है और न उसकी क़ज़ा (भरपाई) करती है।

2. हदीस की तालीम

हज़रत आयशा (रज़ि.) से रिवायत है कि उन्होंने कहा:
"हम पर जब मासिक धर्म आता था, तो हमें नमाज़ छोड़ने का हुक्म दिया जाता था, और हमने छोड़ी गई नमाज़ों की क़ज़ा नहीं की।"
(सहीह मुस्लिम)
इससे यह स्पष्ट है कि नमाज़ न पढ़ना उसी तरह का धार्मिक आदेश है जैसे पुरुषों के लिए जुमे की नमाज़ में उपस्थित रहना।

धार्मिक अशुद्धता का अर्थ क्या है?

धार्मिक अशुद्धता (हदस) का मतलब गंदगी या अपवित्रता नहीं है।

इस्लामी शब्दावली में इसका मतलब होता है: एक ऐसी शारीरिक अवस्था जिसमें कुछ इबादतें (जैसे नमाज़, रोज़ा, तवाफ़) मान्य नहीं होतीं और इबादत से पहले शारीरिक शुद्धि (ग़ुस्ल) आवश्यक होती है-मासिक धर्म समाप्त होने पर ग़ुस्ल करने के बाद महिला पूरी तरह शुद्ध मानी जाती है।

मासिक धर्म के दौरान छूटी नमाज़ की क़ज़ा क्यों नहीं?

इस्लाम में नमाज़ की क़ज़ा तभी की जाती है जब उसकी अदायगी व्यक्ति के लिए मूल रूप से अनिवार्य हो।
चूँकि मासिक धर्म के दिनों में नमाज़ अनिवार्य नहीं होती, इसलिए:

  • छोड़ी गई नमाज़ ग़लती नहीं माना जाती
  • और उसकी भरपाई करना ज़रूरी नहीं
  • यह महिलाओं के लिए एक सहूलियत है, न कि प्रतिबंध।

रोज़ा और अन्य इबादतों के नियम
1. रोज़ा (सौम)

मासिक धर्म में महिलाएँ रोज़ा नहीं रखतीं,
लेकिन रोज़े की क़ज़ा बाद में की जाती है, क्योंकि रोज़ा संख्या में सीमित (रमज़ान के) होते हैं।

2. तवाफ़ (हज/उमराह)

मासिक धर्म के दौरान तवाफ़े-क़ाबा मना है।
बाकी हज के अनेक अरकान (जैसे सफ़ा–मरवा की सई) किए जा सकते हैं।

3. कुरान का पढ़ना

अधिकांश विद्वानों के अनुसार:

  • कुरान को हाथ लगाकर पढ़ना मना है
  • लेकिन डिजिटल स्क्रीन, मोबाइल या कंप्यूटर से तिलावत की जा सकती है
  • दुआ, ज़िक्र, इस्तिग़फ़ार और दुरूद पूरी तरह जायज़ हैं

क्या महिलाएँ दुआ कर सकती हैं?

हाँ।दुआ किसी भी अवस्था में की जा सकती है।इबादत केवल नमाज़ तक सीमित नहीं है।
मासिक धर्म के दौरान महिलाएँ कर सकती हैं:

  • दुआ
  • ज़िक्र (अल्लाह का याद करना)
  • इस्तिग़फ़ार
  • दरूद शरीफ़
  • दुआएं और रूहानी विर्द

मासिक धर्म के नियम महिलाओं के लिए क्यों बनाए गए?

इस्लाम में यह नियम महिलाओं के लिए:

1. शारीरिक राहत

मासिक धर्म के दौरान शरीर थका हुआ, दर्दयुक्त और असहज हो सकता है।
इसलिए नमाज़ की बाध्यता से छूट एक दयालुता है, कठिनाई नहीं।

2. आध्यात्मिक बोझ कम करना

इबादत को बोझ नहीं बनाना चाहिए।
इसलिए इस अवधि को इबादत के कुछ कर्तव्यों से विश्राम की तरह माना गया है।

3. प्राकृतिक प्रक्रिया का सम्मान

इस्लाम महिलाओं के शरीर और उसकी प्राकृतिक स्थितियों को सम्मान देता है और उसे किसी प्रकार की कमजोरी नहीं मानता।

इस्लाम में मासिक धर्म के दौरान महिलाओं का नमाज़ न पढ़ना धार्मिक आदेश है, लेकिन यह रोक नहीं बल्कि राहत है।
यह नियम महिलाओं की शारीरिक-मानसिक अवस्था का सम्मान करता है और उन्हें किसी बोझ से मुक्त करता है।

मासिक धर्म कोई अशुद्धता नहीं बल्कि प्राकृतिक अवस्था है, और इस अवधि में महिलाएँ:

  • दुआ कर सकती हैं
  • ज़िक्र कर सकती हैं
  • डिजिटल कुरान पढ़ सकती हैं
  • आध्यात्मिक रूप से अल्लाह से जुड़ी रह सकती हैं

इस्लाम महिलाओं को इस प्राकृतिक अवस्था में आराम और सरलता प्रदान करता है—यही इसकी सुंदरता है।

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