मां सिर्फ़ एक शब्द नहीं बल्कि मां वो है जिसमें स्नेह धैर्य और विश्वास सबकुछ समाया रहता है -कमल नमन
रेवा - मां ये सिर्फ एक शब्द नहीं है। जीवन की ये वो भावना होती जिसमें स्नेह धैर्य विश्वास सबकुछ समाया होता है। दुनिया का कोई भी कोना हो, कोई भी देश हो, हर संतान के मन में सबसे अनमोल स्नेह मां के लिए होता है। मां, सिर्फ हमारा शरीर ही नहीं गढ़ती बल्कि हमारा मन, हमारा व्यक्तित्व, हमारा आत्मविश्वास भी गढ़ती है। और अपनी संतान के लिए ऐसा करते हुए वो खुद को खपा देती है, खुद को भुला देती है।आज मेरे जीवन में जो कुछ भी अच्छा है, मेरे व्यक्तित्व में जो कुछ भी अच्छा है, वो मां और पिताजी की ही देन है। मेरी मां जितनी सामान्य हैं, उतनी ही असाधारण भी। ठीक वैसे ही, जैसे हर मां होती है। आज जब मैं अपनी मां के बारे में लिख रहा हूं, तो पढ़ते हुए आपको भी ये लग सकता है कि अरे, मेरी मां भी तो ऐसी ही हैं, मेरी मां भी तो ऐसा ही किया करती हैं। ये पढ़ते हुए आपके मन में अपनी मां की छवि उभरेगी।मां की तपस्या, उसकी संतान को, सही इंसान बनाती है। मां की ममता, उसकी संतान को मानवीय संवेदनाओं से भरती है। मां एक व्यक्ति नहीं है, एक व्यक्तित्व नहीं है, मां एक स्वरूप है। हमारे यहां कहते हैं, जैसा भक्त वैसा भगवान। वैसे ही अपने मन के भाव के अनुसार, हम मां के स्वरूप को अनुभव कर सकते हैं।मेरी मां का जन्म मऊगंज जिले के नईगढ़ी तहसील के ग्राम पहारखा में हुआ था। बचपन के संघर्षों ने मेरी मां को उम्र से बहुत पहले बड़ा कर दिया था। वो अपने परिवार में सबसे बड़ी थीं और जब शादी हुई तो भी सबसे बड़ी बहू बनीं। बचपन में जिस तरह वो अपने घर में सभी की चिंता करती थीं, सभी का ध्यान रखती थीं, सारे कामकाज की जिम्मेदारी उठाती थीं, वैसे ही जिम्मेदारियां उन्हें ससुराल में उठानी पड़ीं। इन जिम्मेदारियों के बीच, इन परेशानियों के बीच, मां हमेशा शांत मन से, हर स्थिति में परिवार को संभाले रहीं।
सामान्य रूप से जहां अभाव रहता है, वहां तनाव भी रहता है। मेरे माता-पिता की विशेषता रही कि अभाव के बीच भी उन्होंने घर में कभी तनाव को हावी नहीं होने दिया। दोनों ने ही अपनी-अपनी जिम्मेदारियां साझा की हुईं थीं। मां समय की बहुत ही पाबंद थीं। सुबह 4 बजे उठने की आदत थी गाय की सेवा करना और सुबह-सुबह ही वो बहुत सारे काम निपटा लिया करती थीं। गेहूं पीसना चावल या दाल बीनना हो, सारे काम वो खुद करती थीं। काम करते हुए मां अपने कुछ पसंदीदा सोहर या प्रभातियां गुनगुनाती रहती थीं। मां कभी अपेक्षा नहीं करती थीं कि हम भाई-बहन अपनी पढ़ाई छोड़कर उनकी मदद करें। वो कभी मदद के लिए, उनका हाथ बंटाने के लिए नहीं कहती थीं। मां को लगातार काम करते देखकर हम भाई-बहनों को खुद ही लगता था कि काम में उनका हाथ बंटाएं।
बारिश में हमारे घर में कभी पानी यहां से टपकता था,कभी वहां से। पूरे घर में पानी ना भर जाए, घर की दीवारों को नुकसान ना पहुंचे, इसलिए मां जमीन पर बर्तन रख दिया करती थीं। छत से टपकता हुआ पानी उसमें इकट्ठा होता रहता था। उन पलों में भी मैंने मां को कभी परेशान नहीं देखा, खुद को कोसते नहीं देखा। आप ये जानकर हैरान रह जाएंगे कि बाद में उसी पानी को मां घर के काम के लिए अगले 2-3 दिन तक इस्तेमाल करती थीं। जल संरक्षण का इससे अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है।मां को घर सजाने का, घर को सुंदर बनाने का भी बहुत शौक था। घर सुंदर दिखे, साफ दिखे, इसके लिए वो दिन भर लगी रहती थीं। वो घर के भीतर की जमीन को गोबर से लीपती थीं। आप लोगों को पता होगा कि जब उपले या गोबर के कंडे में आग लगाओ तो कई बार शुरू में बहुत धुआं होता है। मां तो बिना खिड़की वाले उस घर में उपले पर ही खाना बनाती थीं। धुआं निकल नहीं पाता था इसलिए घर के भीतर की दीवारें बहुत जल्दी काली हो जाया करती थीं। हर कुछ हफ्तों में मां उन दीवारों की भी पुताई कर दिया करती थीं। इससे घर में एक नयापन सा आ जाता था। मां मिट्टी की बहुत सुंदर कटोरियां बनाकर भी उन्हें सजाया करती थीं। पुरानी चीजों को रीसायकिल करने की हम भारतीयों में जो आदत है, मां उसकी भी चैंपियन रही हैं।
मां इस बात को लेकर हमेशा बहुत नियम से चलती थीं कि बिस्तर बिल्कुल साफ-सुथरा हो, बहुत अच्छे से बिछा हुआ हो। धूल का एक भी कण उन्हें चादर पर बर्दाश्त नहीं था। थोड़ी सी सलवट देखते ही वो पूरी चादर फिर से झाड़कर करीने से बिछाती थीं। हम लोग भी मां की इस आदत का बहुत ध्यान रखते थे। आज इतने वर्षों बाद भी मां जिस घर में रहती हैं, वहां इस बात पर बहुत जोर देती हैं कि उनका बिस्तर जरा भी सिकुड़ा हुआ ना हो।28 अक्टूबर 2025 यही वह तारिख थी जब मेरी मां मुझे छोड़ कर हमेशा के लिए इस दुनियां से चली गईं जिनकी वज़ह से आज इस दुनियां में मैं हूं वह अब मेरे साथ नहीं हैं मैं कभी अपनी अम्मा को देख नहीं सकता 28 अक्टूबर यही वह तारिख थी जब मेरी अम्मा मुझे छोड़ कर हमेशा के लिए इस दुनियां से चली गईं जिनकी वज़ह से आज इस दुनियां में मैं हूं वह अब मेरे साथ नहीं हैं आज के बाद मैं कभी अपनी अम्मी को देख नहीं पाऊंगा, उनसे बातें नहीं कर पाउंगा, दुख -दर्द नहीं बता पाउंगी उन्हें और ना ही वह मेरे ख़ुशी के पलों में साथ होंगी यह एक असहनीय पीड़ा है जिसे लफ़्ज़ों में बयां नहीं किया जा सकता शब्द भी कम पड़ जायेंगे इस दर्द को व्यक्त करने में जिस पर गुज़रती है वही समझ सकता है सब कुछ मेरे सामने था लेकिन यकीन नहीं हो रहा था ऐसा लग रहा था कि अम्मा सो रही हैं और अभी उठ कर कहेंगी कि आ गई लाला मेरी ज़िन्दगी का सबसे बुरा दिन था यह आज मैं अपनी अम्मा के प्यार दुलार उनकी दुआएं,उनका मेरे लिए फ़िक्र करना यह एक असहनीय पीड़ा है जिसे लफ़्ज़ों में बयां नहीं किया जा सकता शब्द भी कम पड़ जायेंगे इस दर्द को व्यक्त करने में जिस पर गुज़रती है वही समझ सकता है।
रिपोर्टर - अर्जुन तिवारी

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