खरी खरी पर सही सही चुप रहा दादू भऊसा चल रहा है राजनीति सेवा से व्यवसाय तक का पतन

रीवा : लोकतंत्र में राजनीति को कभी जनसेवा का माध्यम कहा जाता था, लेकिन आज वही राजनीति एक सुनियोजित व्यवसाय का मॉडल बन चुकी है। चुनाव अब विचारों की लड़ाई नहीं,बल्कि निवेश और मुनाफ़े का खेल हो गया है। जो जीतता है, वह अगले पाँच वर्षों तक सत्ता का भरपूर दोहन करता है और जो हारता है, वह अगली बारी की प्रतीक्षा में चुप्पी साध लेता है।सत्ता में बैठा नेता जनता को नागरिक नहीं बल्कि उपभोक्ता समझने व मानने लगा है जिससे टैक्स, शुल्क,जुर्माने और योजनाओं के नाम पर आसानी से वसूली की जा सके। सड़क,शिक्षा,स्वास्थ्य, बेरोज़गारी जैसे मूल सवालों पर काम करने के बजाय जनता को भाषणों पर अच्छे दिन के नारों और जुमलों से बहलाया जाता है। पाँच साल तक वही चेहरे मंच से सब ठीक है का राग अलापते रहते हैं, जबकि ज़मीनी हक़ीक़त लगातार बद से बद्तर होती जा रही है।दूसरी ओर विपक्ष की भूमिका भी उतनी ही चिंताजनक है। चुनाव हारने के बाद वह जनसंघर्ष का नेतृत्व करने के बजाय यह गणित लगाता है कि जनता जितनी ज़्यादा परेशान होगी, सत्ता विरोधी लहर उतनी ही मज़बूत होगी। इसलिए हर ज़रूरी मुद्दे पर विपक्ष की चुप्पी सत्ता के अपराधों में मौन सहमति बन जाती है।नतीजा यह है कि जनता दो पाटों के बीच पिसने के मजबूर रहती है एक तरफ़ सत्ता का अहंकार, दूसरी तरफ़ विपक्ष का अवसरवाद। लोकतंत्र में विकल्प तो हैं, लेकिन विकल्पों में जनहित नहीं, केवल सत्ता की भूख है।यदि राजनीति का यही स्वरूप रहा, तो जनता का विश्वास ही नहीं, लोकतंत्र की आत्मा भी निश्चित रूप से आने वाले समय में दम तोड़ देगी।

रिपोर्टर : अर्जुन तिवारी 

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