सचमुच ही वो बड़ा हो गया, नुकसान मनुज का बड़ा हो गया!

माँ एक बच्चे को जन्म देती है... फिर वो बच्चा धीरे-धीरे उम्र के पड़ाव पर आगे बढ़ता हुआ दुनिया को देखना शुरू करता है... कभी बचपना, कभी अल्हड़पन, कभी निश्छल हँसी, कभी बेफिक्री की जिंदगी जीता हुआ ज़िन्दगी का आनंद लेता है... फिर जैसे जैसे उम्र बढ़ती है तो उसके आस-पास के लोग जबरन उसके भीतर बैठे बच्चे जैसे को मन को मार कर उसे बड़ा करने का प्रयास करते हैं... और फिर जब एक रोज़ वो बच्चा बड़ा हो जाता है तो दुनिया उसके बदले स्वरूप पर भी सवाल उठाती है... उसकी खोई हँसी की बात करती है, उसके बदलाव के कारण को नज़रअंदाज़ करती है और फिर एक रोज़ उस शख्स के जीवन में बड़प्पन आ जाने के बाद उसमें सिर्फ और सिर्फ नीरसता ही विद्यमान हो जाती है... कुछ ऐसे ही एक आदमी को सफ़र को दर्शाती है ये कविता "नुकसान मनुज का बड़ा हो गया!"

एक रोज़ जिंदगी में इतना कुछ बदल जायेगा, ये कभी उसने सोचा नहीं था...।

कभी जो शख्स गाता-गुनगुनाता हुआ सड़कों से गुजरता था,
वो आज एकदम खामोशी से अपने घर में कदम रखता है!

कभी जो अजनबियों को भी अपना-सा मान बैठता था,

वो आज अपनों में भी अजनबीपन-सा महसूस करता है!

हर रोज़ सुबह वो काम पर जाता और हर शाम को काम से लौटता है।

बिलकुल ख़ामोश...! बेज़ुबां से किसी परिंदे की तरह अपने नीड़ में आकर दुबक जाता है!

आखिर उसे हुआ क्या है...?

कल कोई उसकी अल्हड़-सी हँसी और बेतुकी बातों पर कहता था कि अब तू बड़ा हो गया!

पा ली तूने नौकरी, अब अपने पैरों पर खड़ा हो गया!

अब कहाँ ऐसी बचकानी बातें करता है? अब क्यों तू यूं खुल के हँसी हँसता है?

अब थोड़ा गंभीर तू हो जा! जीवन रण का धीर तू हो जा!

बड़ों के संग उठ-बैठ कभी, चतुराई भी सीख कभी!

लगता है उसने ओढ़ लिया चोला अब बड़प्पन का!

पच्चीस की उम्र में लगने लगा बूढ़ा पचपन का!

उसकी हँसी-मुस्कान न जाने कहाँ खो गई?

बच्चों की वो हँसी भी छूटी, आदत उसकी बड़ी हो गई!

आज सचमुच में वो बड़ा हो गया, पैरों पर अपने खड़ा हो गया!

कुछ तो हुआ लाभ सभी को!

पर नुकसान मनुज का बड़ा हो गया!!

पर नुकसान मनुज का बड़ा हो गया!!

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