सुप्रसिद्ध कवि, नाटककार नरेंद्र मोहन की याद में कविता

सुप्रसिद्ध कवि, नाटककार, आलोचक, प्रोफेसर और चिंतक नरेंद्र मोहन 30 जुलाई 1935 को लाहौर में पैदा हुए. एक आलोचक और चिंतक से इतर भारतीय उपमहाद्वीप में शब्द-साहित्य की विभिन्न विधाओं में उनकी उपस्थिति 6 दशक से भी अधिक समय तक महसूस की गई. कविता, नाटक और कथेतर रचनाओं के क्षेत्र में उनकी बहुमुखी प्रतिभा की अभिव्यक्ति विशिष्ट और मार्मिक ढंग से लगातार होती रही. उन्होंने विचार कविता और लंबी कविता पर सर्जनात्मक और आलोचनात्मक काम तो किया ही, उसके लिए बाद की पीढ़ी का मार्गदर्शन भी किया. कोरोना के कारण बिछुड़ गए इस प्रोफेसर, चिंतक और विचारक को याद करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार प्रकाश मनु ने एक भावनात्मक कविता लिखी और उन्हें याद किया.
मैंने निंदर को देखा है
मैंने निंदर से बातें की हैं
मैंने उसे देखा है
कभी लाहौर कभी अंबाला की गलियों में
अकेले घूमते हुए उदास
मैंने उसे देखा है
चायघर के कोने की बेंच पर
अकेले चाय और आँसू पीते हुए
बुदबुदाते खुद से
मैंने देखा है उसे दोस्तों के बीच कभी वाचाल
कभी एकदम चुप्पी के खोल में दुबके
कहीं कुछ तलाशते हुए
जो एकाएक फिसल गया है जिंदगी से
मैंने उसके चेहरे पर अचानक घिर आए
दुख और उदासियों के काले बादल देखे हैं
जो कहीं बरसना चाहते थे
तो शब्दों की दुनिया में चले आए
मैंने निंदर को देखा है
तक्सीम की तकलीफ भरी यादों को गुहराते हुए
मंटो के टोबा टेकसिंह में फिर-फिर तलाशते हुए
इतिहास का वह दर्द भरा नाटक
जिसने पूरे देश को कँपा दिया
मैंने देखा है उसे चुपके से आँसू पोंछते
मैंने उसकी उदासियों से बातें की हैं
उसने रोते-रोते अपने बचपन के दोस्त आरिफ
और हिसाब सिखाने वाले मास्टर
यूसुफ मियाँ के बारे में बताया
तो मैं अपने आँसुओं को नहीं रोक पाया
मैं समझ गया
वे कौन सी अफाट बेचैनियाँ थीं जो उसे कविता की ओर
खींच रही थीं
और कई-कई दिनों तक वह सहज नहीं हो पाता था
बहुत कुछ था जो कि उसे करना था
क्योंकि दुनियादारी के तकाजे थे
मगर सब कुछ से पहले
और बाद में भी
उसका खुद से मिलना जरूरी था
क्योंकि जब-जब वह खुद से मिलता था धधाकर
जनमती थी एक नई कविता
जिसकी आँच को सहार पाना मुश्किल था
अपना खुद का आकाश लिए उसकी अपनी
बिल्कुल अपनी कविता
जो कविता भी थी और नाटक भी
क्योंकि उसमें जिंदगी टूटकर आती थी
और खूब थपेड़े देती थी
शायद इसीलिए कविता लगातार
लंबी कविता होती गई
और लंबी कविता जिंदगी का महा आख्यान
कविता निंदर के लिए क्या थी-
कहना मुश्किल था
मगर मैंने निंदर को कविता के लिए बैचैनियों से भरकर
रात-रात भर शब्दों का पीछा करते देखा है
मैंने देखा है निंदर की कविताओं का फैलता हुआ आयतन
जिसमें से कभी कहै कबीर सुनो भई साधो जैसा
नाटक निकल पड़ता है
तो कभी लंबी कविताओं का पूरा एक शास्त्रविधान
कभी आत्मकथा संस्मरण और आलोचना की डगर पर
बहुत कुछ जो औरों के लिए अजाना था
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