"ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है"-साहिर लुधियानवी

साहिर लुधियानवी — एक नाम, जो शायरी, गीतों और इश्क़ के सफ़र को एक ऐसी जुबान देता है जो दिल को छू लेती है। पूरा नाम था अब्दुल हयी 'साहिर' लुधियानवी, और वे 8 मार्च 1921 को लुधियाना (पंजाब) में पैदा हुए थे। उन्होंने उर्दू और हिंदी साहित्य में गहरी पकड़ बनाई और भारतीय फिल्म संगीत को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया। वो शायर जो मोहब्बत को सिर्फ हुस्न और आशिक़ी तक सीमित नहीं रखते। उनके यहाँ मोहब्बत में तन्हाई है, तल्ख़ हक़ीक़तें हैं और एक बग़ावती रूह भी। उन्होंने फ़िल्मी गीतों को एक सामाजिक सोच दी — जैसे: "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है"
जिन्हें नाज़ है हिंद पर, वो कहाँ हैं?
कहाँ हैं? कहाँ हैं? कहाँ हैं?
ये कूचों, ये गलियों के माने नहीं
ये दुनिया है दुनिया के माने नहीं
ये दौलत के भूखे रिवाजों का जाल
ये दुनिया है या आलम-ए-बेहाल
हर एक साँस में बदनसीबी का डर
कोई हँसता नहीं, कोई रोता नहीं
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?
यहाँ इक खिलौना है इंसानियत
ये बस्ती है मुर्दा परस्तों की बस्ती
जहाँ ज़िन्दगी मौत से बदतर है
जहाँ रात दिन भूख के क़हर हैं
जहाँ आदमी कुछ नहीं, सिर्फ़ इक चीज़ है
बिकती है जो बाज़ार में हर घड़ी
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?
यहाँ एक खेल है जज़्बात का
यहाँ एक सौदा है जज़्बात का
यहाँ प्यार को भी ख़रीदा गया
यहाँ नफ़रतों का भी सौदा हुआ
ये दुनिया जहाँ आदमी कुछ नहीं
मोहब्बत नहीं, दोस्ती कुछ नहीं
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?
जला दो, जला दो, इसे फूँक डालो
ये दुनिया नई है, इसे फिर बसाओ
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?
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