मौन की पीड़ा

हर चुप्पी की भी एक भाषा होती है, बस सुनने वाला चाहिए
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, जो विचारों, भावनाओं और अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए भाषा और संवाद का सहारा लेता है। परंतु कई बार ऐसा होता है कि व्यक्ति अपनी पीड़ा, असंतोष या भावनाओं को शब्दों में नहीं ढाल पाता और मौन धारण कर लेता है। यह मौन केवल चुप्पी नहीं होती, बल्कि भीतर ही भीतर ज्वालामुखी-सी पीड़ा को दबाए रखने की प्रक्रिया होती है। यही मौन की पीड़ा है – एक ऐसी पीड़ा जो बाहर से दिखती नहीं, पर भीतर से आत्मा को झकझोर देती है।
मौन को अक्सर शांति, धैर्य और संतुलन का प्रतीक माना जाता है। कई बार यह आत्मसंयम का सूचक होता है, तो कई बार यह परिस्थितियों के आगे मजबूरी। कोई व्यक्ति यदि अपनी बात कहने में असमर्थ हो, तो वह मौन रह जाता है। लेकिन यह मौन एक गूंगी चिल्लाहट की तरह होता है – जिसे कोई सुन नहीं पाता। बचपन में डांट खाकर चुप रहने वाला बच्चा, रिश्तों में उपेक्षा सहकर चुप रहने वाली पत्नी, या समाज के अन्यायों को सहकर भी आवाज न उठा पाने वाला नागरिक – इन सबका मौन एक गहरे दर्द को समेटे होता है। यह एक प्रकार की भावनात्मक यातना है, जो न तो दिखाई देती है, और न ही उसे समाज समझने का प्रयास करता है।
जब कोई व्यक्ति अपनी व्यथा को किसी से साझा नहीं कर पाता, तो वह धीरे-धीरे अंदर ही अंदर घुटने लगता है। वह अपने विचारों, डर और भ्रमों के दलदल में फंस जाता है। उसे लगता है कि कोई उसे समझ नहीं पाएगा, या यदि वह बोलेगा तो उसकी बातों का मजाक उड़ाया जाएगा, नकारात्मक परिणाम आएंगे या रिश्ते और बिगड़ जाएंगे।
यह मौन भावनाओं का अवरोध बन जाता है – न तो व्यक्ति रो पाता है, न खुलकर हंस पाता है। वह सामाजिक रूप से उपस्थित तो रहता है, परन्तु भीतर से टूटता चला जाता है। मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से यह अवस्था अत्यंत खतरनाक होती है, क्योंकि इससे अवसाद (डिप्रेशन), आत्मग्लानि और आत्महत्या जैसे विचार उत्पन्न हो सकते हैं।
मनुष्य खुद को बेहतर तरीके से प्रस्तुत करने के लिए हर संभव प्रयास करता है
रिश्तों में संवाद की भूमिका सबसे अहम होती है। जब दो लोग एक-दूसरे की बातों को सुनते और समझते हैं, तो संबंधों में प्रगाढ़ता आती है। पर जब संवाद रुक जाता है और मौन पसर जाता है, तब वह मौन धीरे-धीरे रिश्तों को खोखला कर देता है।
पति-पत्नी के बीच लंबे समय तक मौन रहना, माता-पिता और बच्चों के बीच संवादहीनता – यह संकेत हैं कि कहीं न कहीं भावनात्मक पुल टूट रहा है। इस मौन में शिकायतें होती हैं, अपेक्षाएं होती हैं, पर कोई उन्हें सुनने वाला नहीं होता। परिणामस्वरूप, प्रेम से बंधे रिश्ते भी समय के साथ केवल औपचारिकता बन जाते हैं।
मौन की पीड़ा को समझना अत्यंत संवेदनशील कार्य है। हमें दूसरों की चुप्पियों को पढ़ना सीखना होगा। जब कोई व्यक्ति अचानक बात करना बंद कर दे, अकेलापन पसंद करने लगे, या अपनी भावनाओं से दूरी बना ले – तो यह संकेत हो सकता है कि वह किसी मानसिक या भावनात्मक संकट से जूझ रहा है। हमें चाहिए कि हम ऐसे व्यक्तियों के साथ समय बिताएं, बिना आलोचना के उनकी बात सुनें, और उन्हें यह विश्वास दिलाएं कि उनकी भावनाएं महत्वपूर्ण हैं। कई बार केवल किसी का “मैं तुम्हें सुन रहा हूँ” कहना भी पीड़ित के लिए संजीवनी बन सकता है।
मौन कभी-कभी सौंदर्य होता है, पर जब यह पीड़ा बन जाए, तो उसे पहचानना और दूर करना अत्यंत आवश्यक हो जाता है। हर चुप्पी के पीछे कोई कहानी होती है – कुछ अनकहे शब्द, कुछ दबे हुए आंसू और कुछ अधूरी इच्छाएं। हमें उन कहानियों को सुनने, समझने और सम्मान देने की आवश्यकता है।
अगर हम एक बेहतर समाज चाहते हैं, तो हमें चुप्पियों के पीछे छुपे दर्द को पहचानना और उसे आवाज देना सीखना होगा।
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