15 से 18 साल की उम्र: एक मोड़,जहाँ बनता है भविष्य या बर्बादी की राह:–युवा पत्रकार संतोष पनिका

सिंगरौली : 15 से 18 साल की उम्र... ये वो पड़ाव है जहाँ एक इंसान मासूमियत से निकलकर युवा बनता है। कानूनी रूप से 18 की उम्र भले ही परिपक्वता का प्रतीक है, लेकिन 15-16 की उम्र से ही दिशा तय हो जाती है — कौन डॉक्टर बनेगा, कौन अपराधी... कौन ऊँचाई छुएगा और कौन अंधेरे में खो जाएगा।
भटकाव की शुरुआत और उम्र का झूठा भरोसा
आज के बच्चे 15–16 की उम्र में टॉपर बनने का सपना नहीं देखते, ट्रेंडिंग बनने का जुनून पालते हैं। किताबों से ज़्यादा मोबाइल के स्क्रीन पर समय देना व्हाट्सएप, फेसबुक,इंस्टाग्राम, स्नैप चैटिंग, रील्स, लव-अफेयर, ब्रेकअप और "कूल दिखने" की होड़ जहाँ किसी उम्र में कॉपी-किताबें भारी होनी चाहिए, वहाँ अब मोबाइल और मेकअप का वजन बढ़ गया है।
यही सिलसिला 17–18 तक पहुँचते-पहुँचते और गहरा हो जाता है।
अब उन्हें लगता है कि वे सब कुछ समझ चुके हैं –
लेकिन असल में वे सिर्फ वहम और वर्चुअल दुनिया में जी रहे होते हैं।
घर से ज़्यादा स्कूल, स्कूल से ज़्यादा मोबाइल
पहले माँ डांट देती थी तो लगता था गलती हो गई,अब माँ बोलती ही नहीं, और बच्चे खुद को ही सही मानने लगे हैं। पिता सोचते हैं, "बच्चा समझदार हो रहा है…"लेकिन हकीकत में बच्चा सिर्फ गूगल और रील्स देखकर झूठी समझदारी बटोर रहा है।और स्कूल? अब वहाँ सिर्फ हाज़िरी दी जाती है। पढ़ाई तो ट्यूशन या YouTube से होती है। जहाँ दोस्ती होती थी किताबों से, अब होती है क्लिक से, कॉल से और चैट से। बिगड़ने की शुरुआत घर से होती है ये भी सच्चाई है कि हर बिगड़ती पीढ़ी के पीछे एक लापरवाह पीढ़ी होती है। पिता दिन भर काम करने घर से बाहर चले जाते हैं माँ फोन रिल और धारावाहिकों में डूबी रहती हैं और बच्चा अपने कमरे में, बंद दरवाज़े के पीछे, एक दूसरी दुनिया में जी रहा होता है। कोई नहीं जानता वो क्या देख रहा है, किससे बात कर रहा है, कहाँ जा रहा है। और जब वो बच्चा किसी दिन पुलिस या अस्पताल के हवाले होता है, तब घर जागता है। लेकिन तब तक बहुत कुछ हाथ से निकल चुका होता है। आजादी का मतलब मनमानी नहीं आज की पीढ़ी "आजादी" का मतलब ही नहीं समझती। उन्हें लगता है जो मन में आए कर सकते हैं रात भर ऑनलाइन रहना, गालियाँ देना, किसी के साथ भी रिश्ते बना लेना — यही आधुनिकता है? नहीं! ये भ्रम है, और ये भ्रम उनके भविष्य को खा रहा है।
15 से 18: यही उम्र है जो तय करती है ज़िंदगी का रास्ता
इसी उम्र में कोई खिलाड़ी बनता है
कोई डॉक्टर, कोई आर्मी ऑफिसर
कोई स्टार्टअप शुरू करता है, कोई IAS की तैयारी करता है
लेकिन इसी उम्र में
कोई नशे का शिकार हो जाता है
कोई सोशल मीडिया की लत में खो जाता है
कोई ग़लत संगत में पड़कर अपराधी बन जाता है
समाज और परिवार की भूमिका
बच्चों को दोष देने से पहले घरवालों को खुद आईना देखना होगा।
क्या आप बच्चों के साथ बैठकर बात करते हैं?
क्या उन्हें ये कहते हैं कि वो किसी भी परेशानी में आपको बता सकते हैं?
क्या आप सिर्फ मार्कशीट देखते हैं या उनके व्यवहार और मनोदशा को भी?
अगर नहीं...
तो दोषी सिर्फ मोबाइल, इंटरनेट, या दोस्त नहीं हैं — बल्कि आप भी हैं।
अंत में एक कड़वी सच्चाई...
"15 से 18 साल की उम्र सिर्फ एक आंकड़ा नहीं, वो आखिरी मौका है…
जिसके बाद संभाल लिया तो जीत है, और चूक गए तो सिर्फ पछतावा..."
“ये उम्र लौटकर नहीं आएगी — लेकिन इसके फैसले ज़िंदगी भर साथ रहेंगे।”
अब भी वक्त है —बात कीजिए,गले लगाइए,
और बच्चों को सिर्फ डांटिए मत... समझाइए।
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