आजादी से आज तक मेड इन इंडिया की बाते फिर युवा और संशोधन से क्यों कतराते

गुजरात : भारत की आजादी के बाद से ही आत्मनिर्भरता और स्वदेशी उत्पादन की बातें होती रही हैं। 1947 में महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन से लेकर आज के 'मेड इन इंडिया' अभियान तक, हर दौर में नारे तो गूंजे, लेकिन जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन में हमेशा कमी नजर आई। आज जब हम 2025 में खड़े हैं, तो 'मेड इन इंडिया' को दस साल पूरे हो चुके हैं। यह अभियान स्मार्टफोन से लेकर इलेक्ट्रिक वाहनों तक फैल चुका है, लेकिन सच्चाई यह है कि आयात पर निर्भरता अभी भी बरकरार है। विदेशी कंपनियां भारत में प्लांट लगाती हैं, लेकिन असली नवाचार और संशोधन का काम तो हमारे युवा ही कर सकते हैं। फिर क्यों हमारा युवा वर्ग और संशोधन क्षेत्र इसकी दौड़ से कतराते नजर आते हैं? क्यों पढ़ाई को संशोधन से जोड़ने की बजाय, हम उसे नौकरी की चाबी मात्र मान लेते हैं?
ऐतिहासिक नजरिया: बातें बहुत, काम कम
आजादी के बाद नेहरू युग में भारी उद्योगों पर जोर दिया गया, लेकिन संशोधन पर निवेश कम रहा। 1991 के उदारीकरण के बाद विदेशी निवेश आया, लेकिन यह 'मेड इन इंडिया' नहीं, बल्कि 'असेंबल्ड इन इंडिया' साबित हुआ। 2014 में शुरू हुए 'मेड इन इंडिया' अभियान ने वादा किया था कि हम वैश्विक सप्लाई चेन का हिस्सा बनेंगे, लेकिन आज भी इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मा और ऑटोमोबाइल सेक्टर में 60-70% कंपोनेंट्स आयात होते हैं। समस्या यह नहीं कि संसाधन नहीं हैं; समस्या है इच्छाशक्ति की कमी। सरकारें बड़े-बड़े सम्मेलनों का आयोजन करती हैं, लेकिन युवाओं को संशोधन के मैदान में उतारने के लिए ठोस प्लेटफॉर्म नहीं बनातीं। नतीजा? हमारे युवा आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों से निकलकर विदेश चले जाते हैं, क्योंकि यहां संशोधन को प्रोत्साहन नहीं, बल्कि बाधाएं मिलती हैं।
युवा पीढ़ी का संशोधन से दूरी: क्यों?
हमारे युवा प्रतिभाशाली हैं, लेकिन सिस्टम उन्हें संशोधन की ओर मोड़ने में नाकाम रहा है। पढ़ाई को रट्टा मारने और नौकरी पकड़ने तक सीमित कर दिया गया है। 'संशोधन' शब्द सुनते ही दिमाग में फेलियर का भय घेर लेता है, क्योंकि फंडिंग की कमी, पेटेंट की जटिलताएं और बाजार की अनिश्चितता उन्हें डराती है। लेकिन सच्चाई यह है कि संशोधन ही 'मेड इन इंडिया' का असली इंजन है। अगर युवा को पढ़ाई के साथ संशोधन का चस्का लग जाए, तो वे चिप डिजाइनिंग से लेकर एआई तक में क्रांति ला सकते हैं। आज का युवा स्टार्टअप कल्चर में तो रुचि लेता है, लेकिन गहरा संशोधन—जैसे नई सामग्री विकसित करना या सस्टेनेबल टेक्नोलॉजी—से क्यों कतराता है? इसका जवाब सरल है: प्रोत्साहन की कमी।
प्रतिक संघवी: एक जीता-जागता प्रेरणादायक उदाहरण
ऐसे में गुजरात के प्रतिक संघवी जैसे युवा हमें रास्ता दिखाते हैं। 2013 में, जब डिजिटल इंडिया का दौर भी पूरी तरह शुरू नहीं हुआ था, प्रतिक ने अपने तहसील कालवाड़ (जामनगर , गुजरात) को दुनिया का पहला 'वेब तहसील' बनाने का संकल्प लिया। एक ही दिन में उन्होंने 100 वेबसाइट्स विकसित कीं, जो सरकारी सेवाओं को ऑनलाइन पहुंचाने का काम करती थीं। उस समय एआई टूल्स जैसे ग्रोक या चैटजीपीटी जैसी चीजें कल्पना से परे थीं, और सर्वर विदेशी होने की समस्या सामने आई। लेकिन प्रतिक ने हार नहीं मानी—अगले ही साल में उन्होंने 100 ऑफलाइन ऐप्स बना डाले, जो बिना इंटरनेट के काम करते थे। आज ये ऐप्स लाखों लोगों द्वारा इस्तेमाल हो रहे हैं, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में जहां कनेक्टिविटी की समस्या है। प्रतिक का यह प्रयास 'मेड इन इंडिया' का सच्चा उदाहरण है—एक युवा ने विदेशी निर्भरता को चुनौती दी और स्वदेशी समाधान दिया। ऐसे हजारों प्रतिक छिपे हुए हैं: स्टार्टअप इंक्यूबेटर्स में, छोटे शहरों के कोडर्स में, जो सिर्फ एक मौके की तलाश में हैं। इन्हें आगे लाएं, तो 'मेड इन इंडिया' सिर्फ नारा नहीं, हकीकत बनेगा।
नेताओं की भूमिका: बड़बोलेपन से आगे बढ़ें।
नेता बड़े-बड़े दावे करते हैं—'वोकल फॉर लोकल' का नारा तो गूंजता है, लेकिन दिखावे से आगे बढ़कर कुछ करें। बजाय फोटो सेशन के, वे युवाओं के लिए संशोधन फंडिंग बढ़ाएं, टैक्स छूट दें और फेलियर को सक्सेस का हिस्सा मानें। अगर नेता खुद संशोधन को प्राथमिकता देंगे, तो युवा भी प्रेरित होंगे।
सुझाव:
युवाओं और संशोधन को जोड़ने के रास्ते'मेड इन इंडिया' को मजबूत बनाने के लिए यहां कुछ व्यावहारिक सुझाव हैं, जो सरकार, उद्योग और समाज सब मिलकर अपना सकते हैं।
शिक्षा पाठ्यक्रम में संशोधन को अनिवार्य बनाएं:
स्कूल-कॉलेज स्तर पर 'इनोवेशन लैब्स' स्थापित करें, जहां पढ़ाई के साथ प्रोजेक्ट-बेस्ड लर्निंग हो। उदाहरण के लिए, आईआईटी मॉडल को हर यूनिवर्सिटी में फैलाएं, ताकि युवा रट्टे से ऊबकर क्रिएटिविटी अपनाएं।
स्टार्टअप फंडिंग में संशोधन पर फोकस:
'स्टार्टअप इंडिया' स्कीम को मजबूत करें, लेकिन 50% फंडिंग सिर्फ उन प्रोजेक्ट्स को दें जो नई टेक्नोलॉजी विकसित करें। प्रतिक जैसे युवाओं के लिए 'माइक्रो-ग्रांट्स' शुरू करें—₹5-10 लाख की छोटी फंडिंग, जो बिना ब्युरोक्रेसी के मिले।
मेंटरशिप प्रोग्राम लॉन्च करें: सफल उद्यमी जैसे रतन टाटा या नारायण मूर्ति जैसे दिग्गजों को युवाओं से जोड़ें। 'मेंटर फॉर इंडिया' जैसे प्लेटफॉर्म पर अनुभवी लोग गाइड करें, ताकि युवा अकेले न महसूस करें।
पेटेंट और मार्केट एक्सेस आसान बनाएं:
पेटेंट प्रक्रिया को 6 महीने में पूरा करने का लक्ष्य रखें और 'मेड इन इंडिया' प्रोडक्ट्स के लिए सरकारी खरीद में 30% कोटा आरक्षित करें। इससे संशोधन को व्यावसायिक मूल्य मिलेगा।
जागरूकता अभियान चलाएं:
सोशल मीडिया और स्कूलों में 'संशोधन हीरो' स्टोरीज शेयर करें, जैसे प्रतिक संघवी की। युवाओं को बताएं कि फेलियर नहीं, एक्सपेरिमेंट ही सफलता की कुंजी है।
अंत में, 'मेड इन इंडिया' तभी फलेगा जब हम बातों से आगे बढ़कर काम करेंगे। हमारे युवा—प्रतिक जैसे लाखों हीरे—सिर्फ प्रोत्साहन का इंतजार कर रहे हैं। अगर हम संशोधन को पढ़ाई का हिस्सा बना दें, तो भारत न सिर्फ आत्मनिर्भर बनेगा, बल्कि विश्व गुरु भी। आइए, इस दिशा में कदम बढ़ाएं—क्योंकि समय नारों का नहीं, कर्म का है।
लेखक : चंद्रकांत सी पूजारी
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