त्रिभुवन नारायण सिंह: यूपी के स्वतंत्र मुख्यमंत्री की अनकही कहानी
उत्तर प्रदेश की राजनीति में ऐसे बहुत कम चेहरे हुए हैं, जो न सिर्फ़ सत्ता में रहे, बल्कि सत्ता के दबाव से ऊपर भी खड़े रहे। एक ऐसा ही नाम है — त्रिभुवन नारायण सिंह। यूपी के छठे मुख्यमंत्री, जिन्होंने अपनी सादगी, संतुलित दृष्टिकोण और स्वतंत्र विचारों से राजनीति को एक नई परिभाषा दी।
वाराणसी से शुरू हुआ था सफर
त्रिभुवन नारायण सिंह का जन्म 8 अगस्त 1904 को वाराणसी में हुआ। शिक्षा और सामाजिक सेवा के क्षेत्र से जुड़े रहने के बाद उन्होंने राजनीति में कदम रखा। 1952 में उन्होंने चंदौली से लोकसभा चुनाव लड़ा, और 1957 में उसी सीट से समाजवादी विचारधारा के स्तंभ डॉ. राम मनोहर लोहिया को पराजित कर सबको चौंका दिया। इसके बाद वो केंद्र सरकार में उद्योग और फिर इस्पात मंत्री भी बने। साफ सोच और स्पष्ट भाषण शैली की वजह से वे दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में एक सुलझे हुए नेता के रूप में जाने जाने लगे।
कैसे बने मुख्यमंत्री?
1969 के विधानसभा चुनाव के बाद यूपी की सत्ता में उठापटक शुरू हो चुकी थी। पहले चंद्रभानु गुप्ता, फिर चौधरी चरण सिंह मुख्यमंत्री बने। लेकिन चरण सिंह का कार्यकाल केवल 7 महीने चला। बहुमत खोने के बाद उन्होंने इस्तीफा दिया, लेकिन राज्यपाल ने विधानसभा भंग करने की सिफारिश नहीं मानी।
17 दिन के राष्ट्रपति शासन के बाद, एक नया नाम सामने आया — त्रिभुवन नारायण सिंह। 18 अक्टूबर 1970 को, उन्हें संयुक्त विधायक दल के नेता के रूप में मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। उन्हें भारतीय जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था।
मज़ेदार बात ये थी कि उस समय त्रिभुवन नारायण सिंह राज्यसभा सदस्य थे — यानी न वे विधान परिषद में थे और न ही विधानसभा में। फिर भी वो मुख्यमंत्री बने। उनके समर्थकों की संख्या विधानसभा में 257 तक पहुंच गई थी।
गोरखपुर का वो ऐतिहासिक उपचुनाव
संविधान के अनुसार, मुख्यमंत्री बनने के 6 महीने के भीतर किसी एक सदन का सदस्य बनना जरूरी होता है। इसके लिए त्रिभुवन नारायण सिंह ने 1971 में गोरखपुर के मानीराम सीट से उपचुनाव लड़ा।
यह चुनाव प्रतीक बन गया भारतीय राजनीति की अनिश्चितता का — क्योंकि आमतौर पर मुख्यमंत्री का चुनाव जीतना तय ही माना जाता था। लेकिन यहां नतीजा चौकाने वाला था: त्रिभुवन नारायण सिंह हार गए।
इस हार ने इतिहास बदल दिया और यह साबित कर दिया कि लोकतंत्र में कुछ भी "पक्का" नहीं होता।
न किसी का आदमी, न किसी का विरोधी
चौधरी चरण सिंह के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने के बावजूद, दिलचस्प बात यह रही कि त्रिभुवन नारायण सिंह पर किसी भी गुट का ठप्पा नहीं लगा। उन्हें न चरण सिंह का आदमी कहा गया, न कांग्रेस का। वो स्वतंत्र सोच वाले नेता थे, जो खुद के उसूलों से चलना जानते थे। इसीलिए कहा जाता है, वो अकेले ऐसे नेता थे जिनके मुख्यमंत्री बनने पर किसी को आपत्ति नहीं थी — और यही उनकी सबसे बड़ी पूंजी थी।
3 अगस्त 1982 को, त्रिभुवन नारायण सिंह ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनकी विदाई शांत रही, लेकिन उनकी राजनीतिक यात्रा भारतीय लोकतंत्र की स्थायित्व और स्वतंत्रता की एक मिसाल बनकर रह गई।
त्रिभुवन नारायण सिंह उस पीढ़ी के नेता थे, जिनकी राजनीतिक हैसियत पद से नहीं, सिद्धांतों से तय होती थी। वो मुख्यमंत्री बने, लेकिन कभी किसी सत्ता के गुलाम नहीं बने। यही वजह है कि उन्हें याद किया जाता है — एक ऐसे नेता के तौर पर जो "किसी का भी यस मैन नहीं था।"

No Previous Comments found.