रेखा की ‘उमराव जान’ की वापसी – वो फिल्म जिसकी हर सिलाई में छिपा है एक दौर, एक तहज़ीब!


रेखा की कालजयी फ़िल्म ‘उमराव जान’ (1981) — सिर्फ एक फिल्म नहीं, ये एक एहसास है, एक तहज़ीब है, एक अदब है। मुज़फ़्फ़र अली की इस मास्टरपीस को देखकर जैसे 19वीं सदी का लखनऊ परदे पर सांस लेने लगता है। अब ये फिल्म 4K रिस्टोर्ड वर्जन में 27 जून को फिर से सिनेमाघरों में लौट रही है। और इसी वापसी के मौके पर सामने आया है एक ऐसा किस्सा, जो ‘उमराव जान’ को और भी ख़ास बना देता है।

कपड़े जो कहानी कहते हैं – उमराव जान के कॉस्ट्यूम्स का अनसुना सफ़र

फिल्म के निर्देशक मुज़फ़्फ़र अली ने हाल ही में एक इंटरव्यू में बताया कि 'उमराव जान' के लिबास कहीं फैशन स्टोर या डिजाइनर हाउस से नहीं आए थे। ये कपड़े लोगों के घरों से, पुरानी अलमारियों से, बक्सों में बंद तहज़ीब से निकले थे। हर एक ज़री, हर एक कढ़ाई, हर एक रंग – एक दास्तान लिए हुए था।उन्होंने कहा, “हमने बाजार से नहीं, बल्कि वक़्त से कपड़े इकट्ठा किए थे। हर किरदार का पहनावा सिर्फ खूबसूरती नहीं, उसकी पहचान था। कपड़े सिर्फ कपड़े नहीं थे – वो किरदार की ज़ुबान बन गए थे।”

हाथों का हुनर, दिलों का फन – वो दौर जो अब किताबों में रह गया

आज के समय में जब सब कुछ मशीन से बनता है, मुज़फ़्फ़र अली उस दौर को याद करते हैं जब कपड़े हाथों से बुने जाते थे, रंग नैचुरल होते थे और हर डोरी में कलाकार की रूह बसती थी। उन्होंने अफसोस जताते हुए कहा,
“अब वो ज़माना नहीं रहा जब लोग खुद अपने कपड़े बनाते, रंगते और पहनते थे। उस दौर की बात ही कुछ और थी – वो एक कला थी, एक पूजा थी।”

फिल्म नहीं, एक जीता-जागता लखनऊ

रेखा की अदाकारी, खय्याम का संगीत, शहरयार का शायरी से भरा कलाम, और इन सब पर लखनऊ की नज़ाकत – ‘उमराव जान’ को देखकर ऐसा लगता है जैसे इतिहास खुद परदे से उतरकर हमारे सामने आ खड़ा हुआ हो।

और अब जब ये फिल्म दोबारा बड़े परदे पर लौट रही है, तो सिर्फ एक फिल्म देखने नहीं जाइए – एक जमाने को फिर से जीने जाइए।

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