उत्तर प्रदेश की सियासी ज़मीन खौलने लगी

अभी चुनाव को दो साल बचे हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश की सियासी ज़मीन खौलने लगी है। सत्ता के गलियारों से लेकर गांव की चौपाल तक, राजनीति की गर्माहट अब साफ महसूस की जा रही है।हर पार्टी मैदान में उतर चुकी है — कोई तैयारी कर रहा है ताकतवर वापसी की, तो कोई सत्तारूढ़ दल के किले में सेंध लगाने की।जैसे - 

बीजेपी अपने विधायकों के कामकाज का ऑडिट करवा रही है,
समाजवादी पार्टी कार्यकर्ताओं को फिर से चौक-चौराहों पर भेज रही है,
कांग्रेस सीटों पर दावा ठोकने लगी है,
और बसपा में आकाश आनंद की एंट्री से फिर कुछ ‘हिलने’ लगा है।

लेकिन असली हलचल, उस मोर्चे पर है जिसे आम तौर पर कम आंका जाता है — सहयोगी दलों का गुस्सा और महत्वाकांक्षा!उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री और निषाद पार्टी के मुखिया संजय निषाद की सियासत अब सिर्फ सहारनपुर से सोनभद्र तक की ‘संविधान यात्रा’ नहीं है — यह एक शक्ति प्रदर्शन है, सियासी संदेश है और साफ चेतावनी भी।उन्होंने हर मंच से एक ही बात दोहराई:"निषाद समाज 200 से ज्यादा सीटों पर प्रभाव रखता है। अगर परिस्थितियां सही रहीं तो हम इन सभी पर चुनाव लड़ेंगे।"

अब सोचिए — योगी सरकार के मंत्री, बीजेपी के सहयोगी, और फिर भी अपने दम पर 200 सीटों की बात!यह महज आकांक्षा नहीं, सीधी दबाव की रणनीति है।जब सहयोगी बोलें – 'विभीषणों से बचो', तो संदेश गहरा होता है...यह किसी सामान्य सहयोगी की टिप्पणी नहीं थी, यह एक घोषणा थी कि हम सिर्फ सहायक नहीं, समीकरण तय करने वाले हैं।ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भाजपा को खुलकर चेतावनी दे रहे हैं संजय निषाद?2024 के लोकसभा चुनावों में भी उन्होंने बीजेपी से टिकट की मांग की थी। मगर नहीं मिला।

अब निषाद पार्टी चाहती है कि 2027 में उन्हें सिर्फ प्रतीकात्मक साथ नहीं, वास्तविक हिस्सेदारी दी जाए।और यदि नहीं दी गई, तो वे खुद के दम पर चुनाव मैदान में उतरने को तैयार हैं ..लेकिन ये चेतावनी  बीजेपी के लिए कितना खतरनाक हो सकती है ..ये समझने की जरूरत है .. दरसल , 403 विधानसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में, निषाद पार्टी के पास अभी सिर्फ 5 विधायक हैं।लेकिन संजय निषाद का दावा 200 सीटों का है — और दावा भी सिर्फ हवा में नहीं, जातीय आधार पर गढ़ा गया है।अगर भाजपा ने उनकी मांगें नहीं मानीं, और निषाद पार्टी अलग चुनाव लड़ी, तो बीजेपी के वोट बैंक में सीधा सेंध लग सकती है।

कुल मिलाकर संजय निषाद धीरे-धीरे 'साइलेंट पार्टनर' से 'शर्तों वाला सहयोगी' बनते जा रहे हैं।उनकी 'संविधान यात्रा' महज जनजागरण नहीं, राजनीतिक क्षेत्र विस्तार की गुप्त योजना है।उत्तर प्रदेश की राजनीति अब सिर्फ सत्ता की नहीं, हिस्सेदारी और हैसियत की लड़ाई बन चुकी है। सहयोगी दल अब सिर झुकाकर चलने वाले साझेदार नहीं, शर्तों के साथ खड़े रणनीतिक खिलाड़ी हैं। निषाद पार्टी की बढ़ती आवाज़ और संजय निषाद की राजनीतिक आक्रामकता इस बात का साफ संकेत है कि 2027 का चुनाव सिर्फ चेहरे और नारों पर नहीं, बल्कि गठबंधनों की गहराई और सम्मानजनक हिस्सेदारी पर तय होगा। असली सवाल यही है — चुनाव में कौन किसके साथ रहेगा नहीं, बल्कि कौन किसकी शर्तों पर चलेगा।

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