क्या उत्तर प्रदेश में ख़तम हो गए हैं जनकल्याण के मुद्दे ?

उत्तर प्रदेश की राजनीति में अक्सर यह आरोप-प्रत्यारोप चलता रहा है कि सत्ता में रहने वाले दलों के लिए “जनकल्याण” सिर्फ नारा बन गया है। लेकिन क्या सचमुच आज के अरिवेश में जनकल्याण के मुद्दे समाप्त हो गए हैं? अगर हम वर्तमान समय के सियासी बयानों, योजनाओं और विरोध की स्थितियों को देखें, तो कहना गलत न होगा कि यह मुद्दा अभी भी जीवित है — लेकिन उसकी स्वरूप और संवेदनशीलता बदल चुकी है।
मुख्यमंत्री योगी अध्ययनाथ कई मौकों पर यह दावा करते हैं कि उनकी सरकार ‘जनकल्याण’ को केंद्र में रखकर काम कर रही है। उन्होंने जनता दर्शन और जनता से सीधी संवाद की पहल को महत्व दिया है, जिसमें वे शिकायतें सुनते और अधिकारियों को तुरंत कार्रवाई के निर्देश देते हैं।
इसके अतिरिक्त, वे विकास परियोजनाओं की समीक्षा, भूमि अतिक्रमण हटाने, मूलभूत नागरिक सुविधाओं (जैसे सड़क, जल निकासी, राशन प्रणाली) को बेहतर बनाने जैसे कदमों को भी सार्वजनिक हित में लिया जाना बताते हैं।
सरकार ने ‘Zero Poverty UP’ जैसे अभियानों को भी प्रारंभ किया है, जिससे राज्य में गरीबी से मुकाबले को जनकल्याण कार्यक्रमों के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की जा रही है।
साथ ही, कबीर रुप में यह कहा जाता है कि बड़ी संख्या में परिवारों को इस योजना के तहत लाभ पहुंचाया जा रहा है।
लेकिन, इस तर्क का सामना विपक्षी दलों द्वारा तीखी आलोचना से भी होता है। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी यह आरोप लगाती हैं कि इन सरकारों की योजनाएँ सिर्फ घोषणा स्तर तक ही सीमित हैं — असल क्रियान्वयन, पारदर्शिता और लाभार्थी पहचान में कई असंगतियां हैं। SP नेता अक्हेलेश यादव ठोस मामलों— जैसे दलितों और पिछड़ों की जमीन हक़ और सामाजिक न्याय — पर सवाल उठाते हैं कि बीजेपी सरकार ने उन समूहों की मूल समस्याओं को हल किया है या नहीं। BSP अध्यक्ष मायावती ने भी कभी-कभी वर्तमान सरकार की योजनाओं की प्रशंसा की है (जैसे स्मारकों की देख-रेख के लिए) पर इसे एक रणनीतिक करार दिया जाता है जहाँ वे जनकल्याण का पक्ष भी लेती हैं।
इसके अलावा, सरकार की योजनाओं पर प्रतिक्रिया स्वरूप बड़े इशारे दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए, नगरीय निकायों के कर्मचारियों ने वेतन और PF बकाया को लेकर प्रदर्शन किया है, जो यह बताता है कि निचले स्तर पर जनकल्याण व्यवस्था अभी भी सवालों के घेरे में है।
इसी तरह, सामाजिक न्याय के नाम पर दलित प्रतीकों, स्मारकों और सामाजिक पहचान से जुड़े मुद्दे राजनीति का संवेदनशील हिस्सा बने हुए हैं — और यह स्पष्ट संकेत है कि जनकल्याण के सामाजिक और सांस्कृतिक आयाम भी अनदेखे नहीं हुए हैं।
तो, क्या कहना चाहिए कि जनकल्याण का स्वरूप बदल गया है? हाँ — अब यह एक आरोप-प्रत्यारोप का रणक्षेत्र बन गया है जहाँ दल जनकल्याण की नीतियों के बजाय उसे प्रदर्शन, दावों, विज्ञापन और पारस्परिक आरोप-प्रत्यारोप के ज़रिए मोड़ने की कोशिश करते हैं। जनकल्याण शव्द अब एक राजनीतिक ब्रांड हो चुका है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि जनता की मूल समस्याएँ — गरीबी, स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक न्याय, आधारभूत सुविधाएँ — खत्म हो गई हों।
कुल मिलाकर, उत्तर प्रदेश में आज भी जनकल्याण एक सशक्त मुद्दा है — न कि वैसा जैसा पहले था — बल्कि वह मुद्दा है जो राजनीतिक दलों की योजनाओं, उनकी निष्ठा और जनता के असंतोष की कसौटी पर खड़ा है। इस बदलाव में प्रश्न यह नहीं कि जनकल्याण ख़त्म हो गया है, बल्कि यह है कि कौन इसका असली पक्ष लेता है — और जनता किस पर भरोसा कर सकती है।
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