ज़िंदगी के रंग अटल और दुष्यंत कुमार की रचना के संग...।

जिंदगी के रंग अलग-अलग हैं। यहाँ कभी ख़ुशी तो कभी ग़म नज़र आता है, कभी उत्साह तो कभी हताशा नज़र आती है। कभी हम इतने अधिक उत्साह से भर जाते हैं कि बड़े से बड़े पहाड़ को भी काट कर रास्ता बना लेते हैं, तो कभी इतने हताश और मायूस हो जाते हैं कि हमारे लिए एक तिनके का भी भार उठाना मुश्किल हो जाता है। जिंदगी के इसी उतार-चढ़ाव को जब शब्दों में पिरोकर हम कलम से कागज़ के सीने पर लय-बद्ध करके उकेरते हैं तो वही कविता बन जाती है। कभी-कभी इन्हीं कविताओं में कलम कुछ ऐसा लिखवा लेती है कि उसे पढ़ कर या सुन कर निराश और हताश हो चुके, ज़िंदगी के आखिरी पड़ाव पर खड़े व्यक्ति में भी ये नई चेतना भर देते हैं और वो जीवन को एक नए मोड़ की ओर ले जाकर उसे सार्थक मुकाम देता है। आज कुछ ऐसी कविताओं को हम आपके सामने प्रस्तुत कर रहे हैं, जो कवियों के व्यक्तिगत अनुभव को बयाँ करने के साथ-साथ एक नई चेतना का संचार कर रहे हैं।

सबसे पहले हम बात करते हैं भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पंडित अटल बिहारी वाजपेयी की कविता "हार नहीं मानूँगा...।" जिंदगी में कई बार ऐसा होता है कि बड़े भयानक चेहरों को हमने देख लिया है और अब किसी पर भरोसा नहीं है। वहीं जब वक्त बीतता है और ज़ख्मों पर जब इस वक्त का मरहम लगता है तो फिर से दिन बदलते हैं। रातें कालेपन से निकल कर उजाले की तरफ आती हैं और फिर रात के बीतने के बाद एक नया सवेरा होता है। नई सुबह एक नई उम्मीद, नया जोश, नया उत्साह और नए आयाम लेकर आती है। पंडित अटल बिहारी वाजपेयी ने "हार नहीं मानूँगा...।" कविता में अपने दो अनुभवों को साझा किया है। तो आइये हम भी पड़ते हैं अटल जी की ये प्रेरक कविता....।

पहली अनुभूति:

गीत नहीं गाता हूँ

बेनक़ाब चेहरे हैं,
दाग़ बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ
लगी कुछ ऐसी नज़र
बिखरा शीशे सा शहर

अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ

पीठ मे छुरी सा चांद
राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ।

और अब दूसरी अनुभूति:

गीत नया गाता हूँ

टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात
कोयल की कुहुक रात

प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूँ
गीत नया गाता हूँ

टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलको पर ठिठकी
हार नहीं मानूँगा,
रार नई ठानूँगा,

काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ।।

 

कई बार ऐसा होता है कि जब हम अपने जीवन में कुछ अच्छा करने का निश्चय करते हैं, तो ऐसे में बहुत से लोग हमारे मनोबल को तोड़ने की कोशिश करते हैं। मगर ऐसे वक्त में जब हमारी आत्मचेतना कमज़ोर नहीं पड़ती है और साथ ही दुष्यंत कुमार की ये ग़ज़ल, "ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो" एक नई प्रेरणा के साथ शक्ति प्रदान करने का काम करती है। अतः अब आप सभी के लिए दुष्यंत कुमार की प्रेरणा देने वाली ये ग़ज़ल प्रस्तुत है...।

ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो,

अब कोई ऐसा तरीक़ा भी निकालो यारो।

दर्द-ए-दिल वक़्त को पैग़ाम भी पहुँचाएगा,

इस कबूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो।

लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे,

आज सय्याद को महफ़िल में बुला लो यारो।

आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे,

आज संदूक़ से वो ख़त तो निकालो यारो।

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया,

इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो।

कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता,

एक पत्थर तो तबीअ'त से उछालो यारो।

लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की,

तुम ने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो।।

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